Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 151
________________ गाथा-६७-६८ २९५ २९४ प्रवचनसार अनुशीलन भी सिद्धों का ही स्मरण किया गया है। उसे हम मध्य में होनेवाले मंगलाचरण के रूप में देख सकते हैं। इसप्रकार अबतक कुल चार गाथायें ऐसी प्राप्त हुई हैं; जो तत्त्वप्रदीपिका में नहीं हैं, पर तात्पर्यवृत्ति में पायी जाती हैं। वे सभी गाथाएँ मंगलाचरणरूप गाथाएँ ही हैं; इसकारण उनके न होने पर भी विषय प्रतिपादन में कोई व्यवधान नहीं आता। ६८वीं गाथा के उपरान्त प्राप्त होनेवाली वे दो गाथाएँ इसप्रकार हैं - तेजो दिट्ठी णाणं इड्डी सोक्खं तहेव ईसरियं । तिहुवणपहाणदइयं माहप्पं जस्स सो अरिहो।। तं गुणदो अधिगदरं अविच्छिदं मणुवदेवपदिभावं। अपुणब्भावणिबद्धं पणमामि पुणो पुणो सिद्धं ।। (हरिगीत) प्राधान्य है त्रैलोक्य में ऐश्वर्य ऋद्धि सहित हैं। तेज दर्शन ज्ञान सुख युत पूज्य श्री अरिहंत हैं।। हो नमन बारम्बार सुरनरनाथ पद से रहित जो। अपुनर्भावी सिद्धगण गुण से अधिक भव रहित जो।। जिनका तेज, केवलदर्शन, केवलज्ञान, अतीन्द्रियसुख, देवत्व और जिनकी ईश्वरता, ऋद्धियाँ, तीनलोक में प्रधानपना और विशेष महिमा है; वे भगवान अरहत हैं। जो अरहंतों की अपेक्षा भी गुणों से अधिक हैं, मनुष्यों और देवों के स्वामित्व से रहित हैं, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और भव परिवर्तनों से रहित जो मोक्षपद, उससे सहित हैं; ऐसे सिद्धों को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ। इन गाथाओं की व्याख्या करते हुए आचार्य जयसेन लिखते हैं कि तेज अर्थात् प्रभामण्डल, तीनलोक और तीनकालवर्ती सम्पूर्ण वस्तुओं के सामान्य अस्तित्व को एकसाथ ग्रहण करनेवाला केवलदर्शन, सभी पदार्थों के विशेष अस्तित्व को ग्रहण करनेवाला केवलज्ञान, ऋद्धि शब्द से समवशरणादि विभूति, अव्याबाध अनंतसुख, अरहंतपद के अभिलाषी इन्द्रादि की भृत्यता - इसप्रकार की ईश्वरता और तीनलोक के राजाओं की वल्लभता-भक्ति जिनको प्राप्त है, इसप्रकार की महिमा जिनकी है; वे अरिहंत भगवान हैं। जो गुण अरहंतों में भी नहीं हैं, ऐसे अव्याबाध आदि गुणों के धारक, समवशरणादि विभूति से रहित होने से इन्द्रादि की सेवा से रहित, पंचपरावर्तनों से रहित मोक्ष को प्राप्त सिद्ध भगवंतों को बारम्बार नमस्कार हो। यहाँ एक बात विशेष ध्यान देनेयोग्य है कि सिद्ध भगवान की महिमा सूचक जो विशेषण यहाँ दिये गये हैं; उनमें एक मणुवदेवपदिभावं भी है, जिसका अर्थ होता है कि मनुष्य और देवों के स्वामित्व से रहित हैं। इस विशेषण के माध्यम से आचार्य यह कहना चाहते हैं कि अरहंत अवस्था में समवशरण के मध्य विराजमान होकर जो दिव्यध्वनि खिरती है; उसमें इन्द्रादि उपस्थित रहते हैं और सभी प्रकार की व्यवस्था करते हैं; किन्तु सिद्धों के इसप्रकार प्रसंग नहीं होने से वे इन्द्रादि की सेवा से रहित हैं। इसप्रकार इन दो गाथाओं में अरिहंत और सिद्ध भगवन्तों को उनके गुणानुवादपूर्वक स्मरण किया गया है। इसप्रकार यह सुखाधिकार समाप्त होता है। चारित्र ही बस धर्म है वह धर्म समताभाव है। दृगमोह-क्षोभ विहीन निज परिणाम समताभाव है।।६९।। - कुन्दकुन्दशतक, पृष्ठ-२४, छन्द-६९

Loading...

Page Navigation
1 ... 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227