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गाथा-९२
४३१ वस्तु है, श्रद्धादि गुणों का सम्यक् परिणमन ही है। ऐसा धर्म धर्मात्मा में ही पाया जाता है, धर्मात्माओं को छोड़कर धर्म कहाँ रहेगा? कहा भी है
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प्रवचनसार अनुशीलन “कुन्दकुन्द आचार्य कहते हैं कि अप्रतिहत भाव से यह आत्मा ही स्वयं धर्मरूप से परिणमित हुआ है, इसलिए मुझे फिर से मोहदृष्टि उत्पन्न होनेवाली ही नहीं है; इसलिए वीतरागचारित्ररूप से प्रगट पर्याय में परिणमित हुआ मेरा आत्मा स्वयं धर्म होकर समस्त विघ्नों का नाश हो जाने से सदा ही निष्कम्प ही रहता है। शास्त्रादि के विकल्प उठते हैं, वे गौण हैं।
बारम्बार ज्ञानानन्द में डुबकी मारकर वे अतीन्द्रिय आनन्द में लीन हो जाते हैं और निश्चल स्वभाव में निर्विकारपने निश्चलता का ही अनुभव करते हैं। __अन्तर्मुखदृष्टि द्वारा ही बहिर्मुखदृष्टि नष्ट की जाती है। आत्मा ज्ञानस्वरूप है, उसे यथार्थतया समझना यह उपादान है और वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत आगम (शास्त्र) वह निमित्त है, उसकी यहाँ बात कही गई है। धर्मी जीव को ही आगमकौशल्य निपुण कहा है। उन्होंने आगमकथित स्व-पर का व आत्मा का अपने अन्तर्मुखज्ञान द्वारा यथार्थ निर्णय किया है।
आगम में ऐसा कहा है कि बहिर्मुखदृष्टि को नष्ट करने का उपाय पराश्रय रहित अन्तर्मुखदृष्टि है - ऐसा जानकर वह उपाय करने पर मोह की गांठ नष्ट हो जाती है; इसके अलावा कोई दूसरी विधि वस्तुदर्शन में नहीं है। निर्मोही-निष्कम्प स्वभाव के आश्रय से निष्कम्पदशा होती है।
तीर्थंकर परमात्मा की वाणी में ऐसा आया है कि पुण्य-पाप और देहादि निमित्त के लक्ष्य से सम्यक्त्व नहीं होता और मिथ्यात्व नहीं जाता; इसलिए विपरीत दृष्टि छोड़ और स्व-सन्मुखता द्वारा स्वभाव में एकता की दृष्टि, स्वभाव में एकता करनेवाला ज्ञान और आचरण - यही मोक्ष का मार्ग है।"
देखो, इस गाथा में आगमकुशल सम्यग्दृष्टि वीतरागचारित्रवंत भावलिंगी संतों को ही धर्म कहा है। तात्पर्य यह है कि धर्म तो भावात्मक १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३२५-३२६
“न धर्मो धार्मिके बिना धर्म धर्मात्माओं के बिना नहीं होता।" धर्मपरिणत आत्मा ही धर्म है, धर्मात्मा है।
यदि मूर्तिमन्त धर्म के दर्शन करना हैं तो मुनिराजों के दर्शन कर लीजिए। वे चलते-फिरते धर्म हैं।
मैंने देव-शास्त्र-गुरु पूजन में वीतरागी सन्तों को चलते-फिरते सिद्धों के रूप में देखा है और लिखा है कि -
चलते-फिरते सिद्धों से गुरु चरणों में शीश झुकाते हैं। हम चले आपके कदमों पर बस यही भावना भाते हैं।।
जरा सोचो तो सही कि जिन मुनिराजों को यहाँ साक्षात् धर्म कहा है; वे मुनिराज कैसे होंगे? जगतप्रपंच में उलझे, दंद-फंद में पड़े, विकथाओं में रत, परमवीतरागता से विरत वेषधारी लोग भी मात्र वेष के होने से साक्षात् धर्म तो हो नहीं सकते। अत: शुद्धोपयोग और शुद्धपरिणति से परिणत मुनिराज ही धर्म हैं।
ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार की सम्पूर्ण विषयवस्तु समेटते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि अधिक विस्तार से क्या लाभ है ? समझदारों के लिए तो जितना कह दिया, उतना ही पर्याप्त है। वे तो इतने में ही सबकुछ समझ जावेंगे । जो इतने से नहीं समझेंगे, उन्हें तो कितना ही कहो, कुछ होनेवाला नहीं है।
सर्वान्त में जिनवाणी और उससे प्राप्त होनेवाली आत्मोपलब्धि तथा शुद्धोपयोग की जयकार करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि इनके प्रसाद से ही आत्मोपलब्धि होती है और आत्मा धर्मात्मा हो जाता है, धर्म हो १. आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक २६