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प्रवचनसार अनुशीलन विदितार्थजन परद्रव्य में जो राग-द्वेष नहीं करें। शुद्धोपयोगी जीव वे तनजनित दुःख को क्षय करें ।। ७८ ।। सब छोड़ पापारंभ शुभचारित्र में उद्यत रहें। पर नहीं छोड़े मोह तो शुद्धातमा को ना लहें ।। ७९ ।। हो स्वर्ग अर अपवर्ग पथदर्शक जिनेश्वर आपही । लोकाग्रथित तपसंयमी सुर-असुर वंदित आपही ।। ५ ।। देवेन्द्रों के देव यतिवरवृषभ तुम त्रैलोक्यगुरु । जो में तुमको वे मनुज सुख संपदा अक्षय लहें || ६ || द्रव्य गुण पर्याय से जो जानते अरहंत को । वे जानते निज आतमा दृगमोह उनका नाश हो ।। ८० ।। जो जीव व्यपगत मोह हो निज आत्म
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वे छोड़ दें यदि राग रुष शुद्धात्म उपलब्धि करें ।। ८१ ।। सर्व ही अरहंत ने विधि नष्ट कीने जिस विधी । सबको बताई वही विधि हो नमन उनको सब विधी ।।८२ ।। अरे समकित ज्ञान सम्यक्चरण से परिपूर्ण जो । सत्कार पूजा दान के वे पात्र उनको नमन हो ||७|| द्रव्यादि में जो मूढ़ता वह मोह उसके जोर से । कर राग रुष परद्रव्य में जिय क्षुब्ध हो चहुंओर से ।। ८३ ।। बंध होता विविध मोहरु क्षोभ परिणत जीव के । बस इसलिए सम्पूर्णत: वे नाश करने योग्य हैं ।। ८४ ।। अयथार्थ जाने तत्त्व को अति रती विषयों के प्रति । और करुणाभाव ये सब मोह के ही चिह्न हैं ।। ८५ ।। तत्त्वार्थ को जो जानते प्रत्यक्ष या जिनशास्त्र से । दृगमोह क्षय हो इसलिए स्वाध्याय करना चाहिए ।। ८६ ।। द्रव्य-गुण- पर्याय ही हैं अर्थ सब जिनवर कहें।
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अर द्रव्य गुण - पर्यायमय ही भिन्न वस्तु है नहीं ।। ८७ ।। जिनदेव का उपदेश यह जो हने मोहरु क्षोभ को ।
• आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा५-६ और ७
प्रवचनसार पद्यानुवाद
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वह बहुत थोड़े काल में ही सब दुखों से मुक्त हो । ८८ ।। जो जानता ज्ञानात्मक निजरूप अर परद्रव्य को ।
वह नियम से ही क्षय करे दृगमोह एवं क्षोभ को ।। ८९ ।। निर्मोह होना चाहते तो गुणों की पहिचान से ।
तुम भेद जानो स्व-पर में जिनमार्ग के आधार से ।। ९० ।। द्रव्य जो सविशेष सत्तामयी उसकी दृष्टि ना । तो श्रमण हो पर उस श्रमण से धर्म का उद्भव नहीं ।। ९९ ।। आगमकुशल दृगमोहहत आरूढ़ हों चारित्र में ।
बस उन महात्मन श्रमण को ही धर्म कहते शास्त्र में ।। ९२ ।। देखकर संतुष्ट हो उठ नमन वन्दन जो करे । वह भव्य उनसे सदा ही सद्धर्म की प्राप्ति करे ।।८ ॥ * उस धर्म से तिर्यंच नर नरसुरगति को प्राप्त कर । ऐश्वर्य - वैभववान अर पूरण मनोरथवान हों ।। ९ ।। ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार
द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार
सम्यक् सहित चारित्रयुत मुनिराज में मन जोड़कर । नमकर कहूँ संक्षेप में सम्यक्त्व का अधिकार यह ।। १० ।। * गुणात्मक हैं द्रव्य एवं अर्थ हैं सब द्रव्यमय । गुण-द्रव्य से पर्यायें पर्ययमूढ़ ही हैं परसमय ।। ९३ ।। पर्याय में ही लीन जिय परसमय आत्मस्वभाव में।
थित जीव ही हैं स्वसमय यह कहा जिनवरदेव ने ।। ९४ ।। निजभाव को छोड़े बिना उत्पादव्ययध्रुवयुक्त गुणपर्ययसहित जो वस्तु है वह द्रव्य है जिनवर कहें ।। ९५ ।। गुण- चित्रमयपर्याय से उत्पादव्ययध्रुवभाव से । जो द्रव्य का अस्तित्व है वह एकमात्र स्वभाव है ।। ९६ ।। रे सर्वगत सत् एक लक्षण विविध द्रव्यों का कहा। जिनधर्म का उपदेश देते हुए जिनवरदेव ने । । ९७ ।। स्वभाव से ही सिद्ध सत् जिन कहा आगमसिद्ध है ।
• आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा८-९ और १०