Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

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Page 217
________________ ४२६ प्रवचनसार अनुशीलन करता हो, फिर भी स्व-पर की पृथकता सहित पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता अर्थात् प्रत्येक तत्त्व की पृथक्-पृथक् सत्ता को स्वीकार नहीं करता, वह जीव स्वाश्रय दृष्टि रहित होने से उसे निश्चय सम्यक्त्वपूर्वक परमसामयिक संयमरूप मुनित्व का अभाव है अर्थात् वह मुनि नहीं है। जिसप्रकार, जिसे धूल और स्वर्णकण का विवेक (ज्ञान) नहीं है - ऐसे धूल धोया को चाहे कितनी भी मेहनत करने पर स्वर्ण की प्राप्ति नहीं होती; उसीप्रकार जिसे स्व-पर का विवेक नहीं है - ऐसे जीव भले ही द्रव्यलिंगी मुनि होकर चाहे जितने भी कष्ट सहन करे; बाईस परीषह, पंचमहाव्रत आदि क्रिया संबंधी कष्ट उठावे, फिर भी उनको पराश्रयदृष्टि होने से इसमें से अंशमात्र भी वीतरागभावरूप धर्म होता ही नहीं।" सर्राफा बाजार में और उसकी नालियों में बहुत स्वर्णकण गिर जाते हैं; जिन्हें कुछ लोग धूल को छान-छान कर निकालते हैं, धो-धोकर निकालते हैं। जो लोग यह काम करते हैं, उन्हें धूल-धोया कहते हैं। जिस धूल-धोया को स्वर्णकण और कंकणों में अन्तर समझ में नहीं आता, उसे स्वर्णकणों की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? वह कितनी ही मेहनत क्यों न करे, उसे स्वर्णकणों की प्राप्ति नहीं होगी। ___ इसीप्रकार जिस श्रमण को स्व-पर का विवेक नहीं है, वह श्रमण तप करने के नाम पर कितना ही कष्ट क्यों न उठावे; परन्तु उसे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होगी। न तो उसे स्वयं अनंतसुख की प्राप्ति होगी और न उससे अन्य जीवों का ही कल्याण हो सकता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३१७ ।। सभी आत्मा स्वयं परमात्मा हैं, परमात्मा कोई अलग नहीं होते । स्वभाव से तो सभी आत्माएँ स्वयं परमात्मा ही हैं, पर अपने परमात्मस्वभाव को भूल जाने के कारण दीन-हीन बन रहे हैं। जो अपने को जानते हैं, पहिचानते हैं और अपने में ही जम जाते हैं, रम जाते हैं, समा जाते हैं। वे पर्याय में भी परमात्मा बन जाते हैं। - आप कुछ भी कहो, पृष्ठ-१३ प्रवचनसार गाथा-९२ ९१वीं गाथा में यह कहा गया है कि जो स्व-पर के भेदविज्ञानपूर्वक स्व-पर पदार्थों की श्रद्धा नहीं करता, वह श्रमण श्रमण नहीं है, उससे धर्म का उद्भव नहीं होता। अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि मोहदृष्टि से रहित, आगमकुशल, वीतरागचारित्र में आरूढ़ श्रमण साक्षात् धर्म हैं और उनसे धर्म का उद्भव होता है। इस गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के आरंभ से ही बात को उठाते हैं। उनका कथन मूलत: इसप्रकार है - "उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणं संपत्ती - इसप्रकार पाँचवी गाथा में प्रतिज्ञा करके, चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिदिट्ठो - इसप्रकार ७वीं गाथा में साम्य ही धर्म है - ऐसा निश्चित करके, परिणमदिजेण दव्वं तत्कालं तम्मयं ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेदव्वो।। - इसप्रकार ८वीं गाथा में जो आत्मा का धर्मत्व कहना आरंभ किया और जिसकी सिद्धि के लिए - धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदिसुद्दसंपओग जुदो।। पावदि णिव्वाणसुहं... ...............। - इसप्रकार११वीं गाथा में निर्वाणसुख के साधनभूत शुद्धोपयोग का अधिकार आरंभ किया, विरोधी शुभाशुभ उपयोग को हेय बताया, शुद्धोपयोग का वर्णन किया, शुद्धोपयोग के प्रसाद से उत्पन्न होनेवाले आत्मा के सहज ज्ञान और आनन्द को समझाते हुए ज्ञान और सुख के

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