Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

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Page 215
________________ गाथा-९० ४२३ ४२२ प्रवचनसार अनुशीलन द्रव्यों के साथ माने हुए संबंध को छोड़कर ज्ञान-दर्शनस्वभाव द्वारा मैं मेरे आत्मा को सम्पूर्णरूप से तीनों ही काल निश्चल ध्रुवत्व को धारण करता हुआ स्वद्रव्य को धारण करता हुआ स्वद्रव्य जानता हूँ।' ___इसप्रकार स्वद्रव्य से एकत्व और पर से पृथक्त्व निश्चित करनेवाले को ही धर्म अथवा सुख उत्पन्न होता है। ज्ञान की स्व-परप्रकाशक स्वभावशक्ति के कारण निश्चित करता हूँ कि अपना संबंध स्वद्रव्य के साथ और पर का संबंध उनके गुणों के साथ है।' पर से पृथक्त्व और स्वरूप से एकत्वपना जानकर ज्ञान को स्वसन्मुख करें, स्वद्रव्य के साथ एकता करे तो भ्रम और दुखरहित पृथक्त्व कीमुक्ति की श्रद्धा-ज्ञान और चारित्रदशारूप धर्म होता है। सर्व पदार्थों से भिन्नता, पृथक्त्व, मुक्तपना वर्तमान में भी है, भूतकाल में भी था और भविष्यकाल में भी पृथक्त्व ही रहेगा; इसप्रकार वर्तमान स्वलक्षण द्वारा निर्णय किया जा सकता ।" एक कमरे में जलाये गये अनेक दीपक के प्रकाश के समान इस जगतरूपी कमरे में छहों द्रव्य (अनन्त जीव-अजीव पदार्थ) एकक्षेत्र अवगाहनरूप इकट्ठे रहने पर भी मेरा चैतन्य निजस्वरूप से अच्युत ही रहता हुआ, मुझे नित्य स्व-लक्षण द्वारा पृथक् जानने में आता है। मेरा चैतन्य मुझे सदा ही पर से पृथक्प ज्ञात होता है। ___इसप्रकार ज्ञान का और आत्मा का, आत्मा के साथ एकत्व और पर से पृथकत्व का निर्णय करते ही स्वसन्मुखतारूप मुक्ति का उपायरूप धर्म होता है। इसतरह जिनने स्व-पर का विवेक निश्चित किया है - ऐसे आत्मा को विकार करनेवाला मोह का अंकुर उत्पन्न नहीं होता। स्व-पर का विवेक भावभासनरूप होना चाहिए, उसके द्वारा मोह १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३०७ २. वही, पृष्ठ-३०८ ३. वही, पृष्ठ-३०८ ४. वही, पृष्ठ-३०८ ५. वही, पृष्ठ-३१०-३११ ६. वही, पृष्ठ-३११ का नाश होता है और वह भेदज्ञान जिनागम द्वारा स्व-पर के यथार्थ लक्षण को यथार्थरूप से पहचानने से किया जा सकता है।" उक्त गाथा और उसकी टीका में मात्र इतना ही कहा गया है कि जिसप्रकार एक कमरे में अनेक दीपक जलते हों तो ऐसा लगता है कि सबका प्रकाश परस्पर मिल गया है, एकमेक हो गया है; किन्तु जब एक दीपक उठाकर ले जाते हैं तो उसका प्रकाश उसके ही साथ जाता है और उतना प्रकाश कमरे में कम हो जाता है; इससे पता चलता है कि कमरे में विद्यमान सभी दीपकों का प्रकाश अलग-अलग ही रहा है। उसीप्रकार इस लोक में सभी द्रव्य एकक्षेत्रावगाहरूप से रह रहे हैं, महासत्ता की अपेक्षा से एक ही कहे जाते हैं; तथापि स्वरूपास्तित्व की अपेक्षा वे जुदे-जुदे ही हैं। इस लोक में विद्यमान सभी चेतन-अचेतन पदार्थों से मेरी सत्ता भिन्न ही है - ऐसा निर्णय होते ही पर से एकत्व का मोह विलीन हो जाता है और राग-द्वेष भी टूटने लगते हैं। ___ यहाँ एक प्रश्न होता है कि यद्यपि ज्ञान जीव का असाधारण गुण है, विशेष गुण है; तथापि वह सभी जीवों में पाया जाता है। सभी जीवों में पाये जाने के कारण एकप्रकार से वह सामान्य गुण भी है। इस ज्ञान नामक गुण के माध्यम से जड़ से भिन्न सभी जीवों को तो जाना जा सकता है; परन्तु परजीवों से भी भिन्न अपने आत्मा को नहीं। हमें तो परजीवों से भी भिन्न निज आत्मा को जानना है, हम उसे कैसे जाने? ___ मेरा ज्ञानगुण मेरे में है और आपका ज्ञानगुण आपमें । मेरा ज्ञानगुण ही मेरे लिए ज्ञान है; क्योंकि मैं तो उसी से जानने का काम कर सकता हूँ, आपके ज्ञानगुण से नहीं। आपका ज्ञानगुण तो मेरे लिए एकप्रकार से ज्ञान नहीं, ज्ञेय है। अन्य ज्ञेयों के समान यह भी एक ज्ञेय है। अत: अपने ज्ञानगुण से अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को जानो, पहिचानो और उसी में जम जावो, रम जावो; सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३११

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