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गाथा-९२
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प्रवचनसार अनुशीलन स्वरूप का विस्तार किया; अब किसी भी प्रकार शुद्धोपयोग के प्रसाद से उस आत्मा के धर्मत्व को सिद्ध करके परमनिस्पृह, आत्मतृप्त ऐसी पारमेश्वरी प्रवृत्ति को प्राप्त होते हुए, कृतकृत्यता को प्राप्त करके अत्यन्त
अनाकुल होकर, भेदवासना की प्रगटता का प्रलय करते हुए 'मैं स्वयं साक्षात् धर्म ही हूँ' - इसप्रकार रहते हैं।"
उक्त उत्थानिका में ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार की सम्पूर्ण विषयवस्तु को संक्षेप में प्रस्तुत करके अन्त में यह कहा गया है कि धर्मपरिणत संत ही धर्म हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है - जो णिहदमोहदिट्ठी आगमकुसलो विरागचरियम्हि । अब्भुट्टिदो महप्पा धम्मो त्ति विसेसिदो समणो ।।१२।।
(हरिगीत) आगमकुशल दृगमोहहत आरूढ़ हों चारित्र में।
बस उन महात्मन श्रमण को ही धर्म कहते शास्त्र में ।।१२।। जो आगम में कुशल हैं, जिनकी मोहदृष्टि नष्ट हो गई है और जो वीतरागचारित्र में आरूढ़ हैं; उन महात्मा श्रमण को ही धर्म कहा है।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"हमारा मनोरथ यह है कि यह आत्मा स्वयं ही धर्म हो । उसमें विघ्न डालनेवाली एकमात्र बहिर्मोहदृष्टि ही है और वह बहिर्मोहदृष्टि आगमकौशल्य तथा आत्मज्ञान से नष्ट हो जाने के कारण अब मुझमें पुन: उत्पन्न नहीं होगी।
इसलिए वीतरागचारित्ररूप पर्याय में परिणत मेरा यह आत्मा स्वयं धर्म होकर, समस्त विघ्नों का नाश हो जाने से सदा निष्कंप ही रहता है।
अधिक विस्तार से बस होओ। जयवंत वर्तो, स्याद्वादमुद्रित जैनेन्द्र शब्दब्रह्म; जयवंत वर्तो शब्दब्रह्ममूलक आत्मतत्त्वोपलब्धि; जिसके प्रसाद
से अनादि संसार से बंधी हुई मोहग्रंथि तत्काल छूट गई है और जयवंत वर्तो परमवीतरागचारित्ररूप शुद्धोपयोग; जिसके प्रसाद से यह आत्मा स्वयमेव धर्म हुआ है।" ___ आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति की उत्थानिका में ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार की विषयवस्तु की संक्षेप में आद्योपान्त चर्चा करते हैं तथा गाथा का भाव भी लगभग उन्हीं के समान स्पष्ट करते हैं।
कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को अत्यन्त सरल भाषा में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
(मनहरण) जाने मोहदृष्टि को विशिष्टपने घातकरि,
पायो निजरूप भयो सांचोसमकिती है। सरवज्ञभाषित सिद्धान्त में प्रवीन अति,
जथारथ ज्ञान जाके हिये में जगती है।। वीतरागचारित में सदा सावधान रहै,
सोई महामुनि शिवसाधक सुमती है। ताही भावलिंगी मुनिराज को धरम नाम,
विशेषपनेंतें कह्यो सोई शुद्ध जती है ।।६२।। जिन्होंने मोहदृष्टि को विशेषरूप से घात कर आत्मा में अपनत्वरूप सच्चा (निश्चय) सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है, सर्वज्ञभाषित सिद्धान्तों में प्रवीणता प्राप्त की है; जिनके हृदय में यथार्थज्ञान प्रगट हो गया है, जो वीतरागचारित्र में सदा सावधान रहते हैं; शिव की साधना करनेवाले सुमतिज्ञान केधारी वे भावलिंगी महामुनि ही साक्षात धर्म हैं। यदि विशेषरूप से कहें तो वे ही शुद्धयती हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -