Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

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Page 221
________________ गाथा-९२ ४३४ प्रवचनसार अनुशीलन प्रशम के लक्ष्य से ज्ञेयतत्त्व को जानने के इच्छुक मुमुक्षु सर्व पदार्थों को द्रव्य-गुण-पर्याय सहित जानते हैं, जिससे मोहांकुर की कभी किंचित्मात्र भी उत्पत्ति न हो। ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अन्त में और ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार के आरंभ में लिखे गये इन छन्दों में मात्र यही बताया गया है कि जबतक ज्ञेयतत्त्वों अर्थात् सभी पदार्थों का स्वरूप पूरी तरह स्पष्ट नहीं होगा; तबतक ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन की समझ से उपशमित मोहांकुर कभी भी अंकुरित हो सकते हैं। उन मोहांकुरों के पूर्णत: अभाव के लिए ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन में ज्ञेयों का सामान्य और विशेष स्वरूप बताकर ज्ञान और ज्ञेय में विद्यमान स्वभावगतभिन्नता का स्वरूप भी स्पष्ट करेंगे, जिससे पर में एकत्वरूप दर्शनमोह के पुन: अंकुरित होने की संभावना संपूर्णत: समाप्त हो जावे और यह आत्मा अनन्तकाल तक अनंत आनन्द का उपभोग करता रहे। इसके बाद आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका में दो गाथायें प्राप्त होती हैं, जिनमें विगत गाथा में प्रतिपादित साक्षात् धर्मपरिणत मुनिराजों की स्तुति-वंदन-नमन द्वारा प्राप्त पुण्य का फल दिखाया गया है। ध्यान रहे ये गाथाएँ तत्त्वप्रदीपिका टीका में उपलब्ध नहीं होती। ये दोनों गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं जो तं दिट्ठा तुट्ठो अब्भुट्टित्ता करेदि सक्कारं । वंदणणमंसणादिहिं तत्तो सो धम्ममादियदि ।।८।। तेण णरा व तिरिच्छा देविं वा माणुसिं गदि पप्पा । विहविस्सरियेहिं सया संपुण्णमणोरहा होति ।।९।। (हरिगीत) देखकर संतुष्ट हो उठ नमन वन्दन जो करे। वह भव्य उनसे सदा ही सद्धर्म की प्राप्ति करे ।।८।। उस धर्म से तिर्यंच-नर नर-सुरगति को प्राप्त कर । ऐश्वर्य-वैभववान अर पूरण मनोरथवान हों।।९।। विगत गाथा में उल्लिखित मुनिराजों को देखकर जो संतुष्ट होता हुआ वंदन-नमन द्वारा उनका सत्कार करता है; वह उनसे धर्म ग्रहण करता है। उक्त पुण्य द्वारा मनुष्य व तिर्यंच, देवगति या मनुष्यगति को प्राप्त कर वैभव और ऐश्वर्य से सदा परिपूर्ण मनोरथवाले होते हैं। जिसकी जिसमें श्रद्धा व भक्ति होती है; वह उनके वचनों को भी श्रद्धा से स्वीकार करता है; न केवल स्वीकार करता है; अपितु तदनुसार अपने जीवन को ढालता है। अत: यह स्वाभाविक ही है कि वह उनसे सद्धर्म की एवं पुण्य की प्राप्ति करता है। पहली गाथा में इसी तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है। उनसे प्राप्त सद्धर्म अथवा पुण्य के फल में वैभव और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है - यह बताया गया दूसरी गाथा में। टीका में वैभव और ऐश्वर्य को परिभाषित कर दिया गया है। कहा है कि राजाधिराज, रूप-लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री आदि परिपूर्ण सम्पत्ति वैभव कहलाती है और आज्ञा के फल को ऐश्वर्य कहते हैं। __अन्त में लिखा है कि उक्त पुण्य यदि भोगादि के निदान से रहित हो और सम्यक्त्व पूर्वक हो तो उसे मोक्ष का परम्पराकारण भी कहा जाता है। ___ऐसा नहीं लगता कि ये गाथायें आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित होगी; क्योंकि इनमें प्रतिपादित विषयवस्तु और संरचना - दोनों ही आचार्य कुन्दकुम्वक तिरकारमहाहनाय नाथाशक्षिप्य की प्रस्तावाहोती लिन्तन. नहीं, स्वभाव के सामर्थ्य का श्रद्धान है, ज्ञान है। स्व-स्वभाव के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान का नाम ही धर्म है; धर्म की साधना है, आराधना है, उपासना है, धर्म की भावना है, धर्मभावना है। -बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ-१७३

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