Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

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Page 207
________________ ४०६ प्रवचनसार अनुशीलन प्रगट करने पर सहृदयजनों के हृदय को आनन्द से स्फुरायमान करनेवाले प्रत्यक्षप्रमाण से अथवा उससे अविरुद्ध अन्य प्रमाणसमूह से समस्त वस्तुसमूह को यथार्थरूप से जानने पर विपरीताभिनिवेश के संस्कार करनेवाला मोहोपचय अवश्य क्षय को प्राप्त होता है। इसलिए भावज्ञान के अवलम्बन के द्वारा दृढ़कृत परिणाम से द्रव्यश्रुत का अभ्यास करना प्राथमिक भूमिकावाले लोगों को मोहक्षय करने के लिए उपायान्तर है।" यद्यपि आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका के अनुसार ही स्पष्ट किया है; तथापि वे उक्त गाथा का तात्पर्य इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं "कोई भव्यजीव सर्वप्रथम तो वीतरागी सर्वज्ञदेव द्वारा प्रतिपादित शास्त्रों द्वारा श्रुतज्ञान से आत्मा को जानता है और उसके बाद विशिष्ट अभ्यास के वश से परमसमाधि के समय रागादि विकल्पों से रहित मानसप्रत्यक्ष से उसी आत्मा को जानता है अथवा उसीप्रकार अनुमान से जानता है। जिसप्रकार सुखादि के समान विकाररहित स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से यह जाना जाता है कि शरीर में ही एक शुद्ध-बुद्ध परमात्मा है; उसी प्रकार यथासंभव आगम-अभ्यास से उत्पन्न प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से पदार्थ भी जाने जाते हैं। अन्य इसलिए मोक्षार्थी भव्यों को आगम का अभ्यास अवश्य करना चाहिए।" उक्त कथन में आचार्य जयसेन ने मोह के क्षय के कारणरूप में होनेवाले क्रमिक विकास को स्पष्ट कर दिया है। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को एक मनहरण कवित् में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - गाथा-८६ ( मनहरण ) परतच्छ आदिक प्रमानरूप ज्ञानकरि, सरवज्ञकथित जो आगमतें जाने है । सत्यारथरूप सर्व पदारथ 'वृन्दावन', ताको सरधान ज्ञान हिरदे में आने है । नेमकरि ताको मोह संचित खिपत जात, ४०७ जाको भेद विपरीत अज्ञान विधान है। तैं मोह शत्रु के विनासिवे को भलीभांति, आगम अभ्यासिवो ही जोगता वखाने है ।।४१ ॥ प्रत्यक्षादि प्रमाणरूप ज्ञान के द्वारा और सर्वज्ञकथित आगम के द्वारा सर्वपदार्थों का सत्यार्थ स्वरूप जानकर हृदय में उसका श्रद्धान करनेवाले का संचित मोह नियम से नाश को प्राप्त होता है। जिस मोह शत्रु का विधान ही अज्ञान है; उस मोह शत्रु के नाश के लिए आगम का अभ्यास एकमात्र योग्यता है; इसलिए आगम का अभ्यास भलीभाँति करना चाहिए । आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "एकमात्र ज्ञानगुण स्व-परप्रकाशक है। स्व-पर को जानने की ताकत ज्ञान में है; इसलिए जिनकी पूर्ण पर्याय प्रगट हुई है - ऐसे अरहंत को पहचान कर, उनके कहे हुए शास्त्र का अभ्यास करना योग्य है।' तीनकाल- तीनलोक के सर्वपदार्थों का सर्वस्व सर्वज्ञ के ज्ञान में जानने में आ गया है। कुछ भी नया होनेवाला नहीं है - ऐसा निर्णय करें, उसमें आत्मा के सर्वज्ञपद की प्रतीति का अपूर्व पुरुषार्थ चालू होता है । ' स्वभाव का सद्भाव और भव का अभाव करनेवाले शास्त्र का अभ्यास करना । जो परिणाम भावज्ञान के अवलम्बन द्वारा दृढ़तर हों - ऐसे परिणाम से द्रव्य - श्रुतका अभ्यास करना, वह मोह क्षय करने में उपायान्तर है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ- २५७ २. वही, पृष्ठ- २५८ ३. वही, पृष्ठ- २६३

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