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गाथा-८८-८९
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प्रवचनसार अनुशीलन सर्वदुखों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इसलिए वृन्दावन कवि कहते हैं कि जिनशासन के सार का अमृतपान कीजिए और अतिशीघ्र ही ज्ञानानन्दमय मुक्तिपद को प्राप्त कर लीजिए।
(मनहरण) आतमा दरव ही है ज्ञानरूप सदाकाल,
ज्ञान आतमीक यह आतमा ही आप है। ऐसी एकताई ज्ञान आतम की वृन्दावन,
ताको जो प्रतीति प्रीति करें जपै जाप है।। तथा पुग्गलादि को सुभाव भलीभांति जाने,
जान भेद जैसे जीव कर्म को मिलाप है। सोई भेदज्ञानी निजरूप में सुथिर होय,
मोह को विनासै जानै नसै तीनों ताप है ।।४६।। सदाकाल यह आत्मा ज्ञानरूप है और आत्मीक ज्ञान भी स्वयं आत्मा ही है। वृन्दावन कवि कहते हैं कि ज्ञान और आत्मा की ऐसी एकता की जो व्यक्ति प्रतीति करता है, प्रीति करता है, जाप करता है और पुद्गलादि परद्रव्यों का स्वभाव भी भलीभाँति जानता है तथा जीव और कर्मों का मिलाप का रहस्य भी जानता है; वह भेदज्ञानी जीव निजस्वभाव में लीन होकर मोह का नाश कर देता है, जिससे त्रिविध ताप का नाश हो जाता है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"इन सब पापों का मूल अज्ञान है-मिथ्या भ्रांति है, उसका छेदन करने के लिए भगवान का उपदेश तलवार जैसा है, जो मिथ्या भ्रांति और राग-द्वेष को काट ही डाले (नष्ट कर दे) - ऐसा ही है।'
आत्मा अमृतस्वरूप है, उसे कहने में निमित्त उनके वचन अमृत हैं।
ज्ञानी को पूर्णदशा न हो, तबतक राग आता है; किन्तु वह संसारमय उत्पात (अशांत) मार्ग है-शान्ति नहीं।'
इस उत्पातमय संसारमार्ग में किसी भी प्रकार से अर्थात् तेरे सुनने की योग्यता के कारण से और पुण्य प्रताप के योग से जिनेन्द्रदेव का उपदेश मिल जाए तो वह उपदेश मिथ्यात्व-राग-द्वेष को नष्ट करे - ऐसी तीक्ष्ण असिधारा के समान है। ____पुण्य-पाप की रुचि छोड़, स्वभाव की रुचि कर - ऐसा उपदेश सुनना लोगों को कड़क-तीखा पड़ता है। शुभराग की पहचान करना, शुभराग को लाना, शुभराग को करते-करते आगे बढ़ जाएगा - वीतराग की वाणी इसप्रकार नहीं होती। प्रवचनसार की एक-एक गाथा चौदह पूर्व का रहस्य दर्शाती है।
राग करना अथवा नहीं करने का प्रश्न ही नहीं, ज्ञानस्वभावी आत्मा की रुचि करने पर राग की रुचि (स्वयमेव) छूट जाएगी और स्थिरता द्वारा राग छूट जाएगा।
जैसे हाथ में तलवार मिली हो, किन्तु उसे मात्र रखे रहे तो वह किसी काम की नहीं होती। वैसे ही जिनेन्द्रदेव का उपदेश मिला; किन्तु जो ज्ञानस्वरूप है - ऐसे स्वभाव में ढलने पर राग नहीं होता; स्वभाव ज्ञायकज्योति है, उसमें एकाकार-अन्तरदृष्टि होने पर, मोह-राग-द्वेष के ऊपर दृढ़ प्रहार करता है - ऐसा भगवान के उपदेश में कहा है।
शुभरागादि क्रियाएँ धर्म का अथवा मुक्ति का कारण नहीं है; अन्य कोई व्यापार, समस्त दुख से परिमुक्त नहीं करता; स्वभाव-सन्मुखता के सिवाय अन्य कोई भी क्रिया अथवा किसी भी भाव से जीव, दुखों से मुक्त
१. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२९० ३. वही, पृष्ठ-२९४
१. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२९०
२. वही, पृष्ठ-२९१ ४. वही, पृष्ठ-२९५