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प्रवचनसार अनुशीलन ही है? __ श्रीमद्जी बोले - बचाने के लिए ही सही, पर मारने के भाव और मारने की क्रिया तो संक्लेश परिणामों के बिना संभव नहीं है और संक्लेश परिणामों से तो पाप ही बंधता है।
श्रीमद् के उक्त कथन में सबकुछ आ गया है। आप कहते हैं कि करुणा करना तो चाहिए न? पर अभी आप यह मान चुके हैं कि करुणाभाव दुखरूप भाव है; दुखभाव करने का अर्थ दुखी होना ही है। मैं आपको दुखी होने के लिए कैसे कह सकता हूँ? ___हाँ, पर यह बात एकदम सच्ची और पक्की है कि ज्ञानीजनों के जीवन में अपनी-अपनी भूमिकानुसार करुणाभाव होता अवश्य है और तदनुसार क्रिया-प्रक्रिया भी होती ही है। बस इससे अधिक कुछ नहीं।
प्रश्न - जब करुणाभाव ज्ञानियों के जीवन में भी होता ही है तो फिर उसे धर्म मानने में क्या आपत्ति है ?
उत्तर - व्यवहारधर्म तो उसे कहते ही हैं; किन्तु निश्चयधर्म तो उसे कहते हैं; जो मुक्ति का कारण है। ज्ञानियों के जीवन में तो यथायोग्य अशुभभाव भी होते हैं तो क्या उन्हें भी धर्म माने ? ज्ञानियों के जीवन में होना अलग बात है और उनमें उपादेयबुद्धि होना अलग बात है, उनमें धर्मबुद्धि होना अलग बात है।
ज्ञानियों के जीवन में भूमिकानुसार जो-जो भाव होते हैं; वे सभी भाव धर्म तो नहीं हो जाते । हाँ, ज्ञानी जीव जिन भावों को धर्म मानते हैं, बेभाव अवश्य ही निश्चयधर्म होते हैं।
अपना सुख अपने में है, पर में नहीं, परमेश्वर में भी नहीं; अत: सुखार्थी का परमेश्वर की ओर भी किसी आशा-आकांक्षा से झांकना निरर्थक है। तेरा प्रभु तू स्वयं है। तू स्वयं ही अनन्त सुख का भंडार है, सुख स्वरूप है, सुख ही है। तीर्थ. महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-५२
प्रवचनसार गाथा ८६ विगत गाथा में यह कहा गया है कि पदार्थों के अयथार्थ ग्रहणपूर्वक होनेवाले करुणाभाव और अनुकूल विषयों में राग तथा प्रतिकूल विषयों में द्वेष - ये मोह के चिह्न हैं तथा ८०-८१वीं गाथा में यह कहा गया था कि अरहंत भगवान को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से जानकर अपने आत्मा को जानना ही मोह के नाश का उपाय है।
अब इसगाथा में यह बताते हैं कि ८०-८१वीं गाथा में बताया गया मोह के नाश का उपाय अध्यात्मशास्त्रों के गहरे अध्ययन की अपेक्षा रखता है। गाथा मूलत: इसप्रकार है - जिणसत्थादो अढे पच्चक्खादीहिं बुच्झदो णियमा । खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ।।८६।।
(हरिगीत) तत्त्वार्थ को जो जानते प्रत्यक्ष या जिनशास्त्र से।
दृगमोह क्षय हो इसलिए स्वाध्याय करना चाहिए।।८६।। जिनशास्त्रों द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जाननेवाले का नियम से मोह के उपचय (समूह) का क्षय हो जाता है; इसलिए शास्त्रों का सम्यक्प्रकार से अध्ययन करना चाहिए।
उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"८०वीं गाथा में द्रव्य-गुण-पर्यायस्वभाव से अरहंत के ज्ञान द्वारा आत्मा का उसीप्रकार का ज्ञान मोहक्षय के उपाय के रूप में बताया गया था; वह वस्तुत: इस ८६वीं गाथा में प्रतिपादित उपायान्तर की अपेक्षा रखता है।
सर्वज्ञकथित होने से पूर्णत: अबाधित आगमज्ञान को प्राप्त करके उसी में क्रीड़ा करने से प्राप्त संस्कार से विशिष्ट संवेदनशक्तिरूप संपदा