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प्रवचनसार अनुशीलन
अरहंत के द्रव्य-गुण- पर्याय का स्वरूप जानकर अपना स्वरूप जानना वह भी एक उपाय है, इसके बाद विशेष दृढ़ करने और राग का अभाव करने के लिए शास्त्र अभ्यास उपाय है।
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ज्ञान प्रगट करना और ज्ञान की एकाग्रता करना यह केवलज्ञान का उपाय है। नित्य चैतन्यस्वभावी हूँ मैं यही श्रद्धा दृढ़ रखकर, शास्त्र का अभ्यास करना चाहिए। इसमें परिणामों की शुद्धता करना मुख्य है और वह मोह का नाश करने का उपाय है। २"
८०वीं गाथा में अरहंत भगवान को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानने की बात कही गई थी। अतः अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि अरहंत भगवान के द्रव्य-गुण- पर्यायों को कैसे जाने ? इसके उत्तर में इस गाथा में यह बताया गया है कि अरहंत भगवान के द्रव्य-गुण-पर्याय को जानने के लिए आगम का स्वाध्याय करना चाहिए।
स्वाध्याय में अरहंत भगवान की दिव्यध्वनि का श्रवण, उसके अनुसार लिखे गये शास्त्रों का पठन-पाठन एवं उनके मर्म को जाननेवाले तत्त्वज्ञानी गुरुओं के उपदेश का श्रवण - ये सबकुछ आ जाता है ।
उक्त सम्पूर्ण कथन से यही प्रतिफलित होता है कि देशनालब्धि के माध्यम से अरहंत भगवान को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से जानकर, तर्क की कसौटी पर कसकर निर्णय करना चाहिए। तदुपरान्त उन्हीं के समान अपने आत्मा को भी प्रत्यक्षादि प्रमाणों से जानकर आत्मानुभव करना चाहिए। दर्शनमोह के नाश करने का एकमात्र यही उपाय है।
ध्यान रहे यहाँ मोह के नाश के लिए स्वाध्याय के अतिरिक्त और किसी भी क्रियाकाण्ड या शुभभाव को उपाय के रूप में नहीं बताया है। अत: आत्मकल्याण की भावना से मोह (मिथ्यात्व) का नाश करने के लिए धर्म के नाम पर चलनेवाले अन्य क्रियाकलापों से थोड़ा-बहुत विराम लेकर पूरी शक्ति और सच्चे मन से स्वाध्याय में लगना चाहिए; अन्यथा यहमिमुष्य योगही चला जायेगा, कुछ भी हाथ नहीं आये - २६३
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प्रवचनसार गाथा-८७
विगत गाथा में यह बताया गया है कि अरहंत भगवान को द्रव्यगुण-पर्याय से जानने के लिए जिनेन्द्रकथित शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए ।
अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि जिनेन्द्र भगवान के कहे अनुसार द्रव्य-गुण- पर्याय का सामान्य स्वरूप क्या है ?
ध्यान रहे यहाँ मात्र एक गाथा में ही द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप बता रहे हैं; आगे ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डालेंगे।
गाथा मूलतः इसप्रकार है -
दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया । तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्व त्ति उवदेसो ।। ८७ ।। ( हरिगीत )
द्रव्य - गुण - पर्याय ही हैं अर्थ सब जिनवर कहें । अर द्रव्य गुण - पर्यायमय ही भिन्न वस्तु है नहीं । । ८७ ।। द्रव्य, गुण और पर्यायें अर्थ नाम से कही गई हैं। उनमें गुण-पर्यायों का आत्मा द्रव्य है। इसप्रकार जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है।
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार व्यक्त करते हैं -
" द्रव्य, गुण और पर्यायें अभिधेय (वाच्य) का भेद होने पर भी अभिधान (वाचक) का अभेद होने से अर्थ हैं।
उनमें जो गुणों और पर्यायों को प्राप्त करते हैं या गुणों और पर्यायों द्वारा प्राप्त किये जाते हैं; वे अर्थ द्रव्य हैं; जो द्रव्यों को आश्रय के रूप में प्राप्त करते हैं या आश्रयभूत द्रव्यों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं, वे अर्थ