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प्रवचनसार अनुशीलन धर्मात्माओं के जीवन में भी करुणाभाव देखा जाता है। अब यदि यह कहा जाय कि करना चाहिए; तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उसे धर्म मानकर ही करें या इसमें भी आपको कुछ कहना है ?
उत्तर - हमें बहुत प्रसन्नता है कि आपने हमारी बात मान ली; पर भाई साहब ! यह बात हमारी कहाँ है ? यह तो आचार्यों का कथन है, जिसके प्रमाण हमने प्रस्तुत किये ही हैं। हाँ, यह आचार्यों की बात हमें सच्चे दिल से स्वीकार है; इसलिए हमारी भी है; पर हम यह चाहते हैं कि यह आपकी भी बन जावें ।
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अब रही बात यह कि करुणा करना चाहिए या नहीं ? इसके संदर्भ में पंचास्तिकाय की समयव्याख्या टीका का उद्धरण दिया ही है कि ज्ञानी की करुणा कैसी होती है ?
अध्यात्मप्रेमी होने से यह तो आप जानते ही होंगे कि सभी जीवों के जीवन-मरण और सुख-दुख अपने-अपने कर्मोदय के अनुसार होते हैं। यदि आपके ध्यान में अबतक यह बात न आ पाई हो तो कृपया समयसार धाधिकार को देखें; उसमें इस बात को विस्तार से स्पष्ट किया गया है। उसमें समागत ये कलश दृष्टव्य हैं -
( वसन्ततिलका)
सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीय
कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य
कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।। १६८ ।।
अज्ञानमेतदधिगम्य
परात्परस्य
पश्यंति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते
मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवंति । । १६९ । ।
गाथा - ८५
( हरिगीत )
जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख सब प्राणियों के सदा
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अपने कर्म के उदय के अनुसार ही हों नियम से ।। करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख । विविध भूलों से भरी यह मान्यता अज्ञान है ।। १६८ ।। करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख । मानते हैं जो पुरुष अज्ञानमय इस बात को ।। कर्तृत्व रस से लबालब हैं अहंकारी वे पुरुष ।
भव-भव भ्रमें मिथ्यामती अर आत्मघाती वे पुरुष ।। १६९ ।। देखो, यहाँ दूसरों को सुखी करने और बचाने के अभिप्राय को दुखी करने और मारने के अभिप्राय के समान ही हेय बताया है और उन्हें अपनी आत्मा का हनन (हत्या) करनेवाला कहा गया है।
यह बात जुदी है कि विभिन्न भूमिकाओं में रहनेवाले ज्ञानीजनों को अपनी-अपनी भूमिकानुसार करुणाभाव आये बिना नहीं रहता, आता ही है; पर उसे करना चाहिए - यह कैसे कहा जा सकता है ?
एक स्थान पर मैंने पढ़ा था कि श्रीमद् राजचन्दजी से जब गाँधीजी ने पूछा कि कोई किसी को मार रहा हो तो उसे बचाने के लिए तो हम मारनेवाले को मार सकते हैं न ? गाय पर झपटनेवाले शेर को मारने में तो कोई पाप नहीं है न ? आप तो यह बताइये कि कोई हमें ही मारने लगे तब तो हम उसे.....?
श्रीमद्जी एकदम गंभीर हो गये। विशेष आग्रह करने पर उन्होंने उसी गंभीरता के साथ कहा कि आपको ऐसा काम करने को मैं कैसे कह सकता हूँ कि जिसके फल में आपको नरक- निगोद जाना पड़े और भव-भव में भटकना पड़े ?
गाँधीजी ने कहा - स्वयं को या दूसरों को बचाने का भाव तो शुभ