Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

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Page 203
________________ गाथा-८५ ३९८ प्रवचनसार अनुशीलन में मेरे से कुछ होगा तथा उनसे मेरे में कुछ होगा - ऐसी विपरीत मान्यता ही करता है; इसलिए वह स्वभाव का खून करनेवाला है।' मेरी पर्याय में जो करुणा आती है, वह अस्थिरता चारित्र का दोष है; किन्तु यदि पर के कारण करुणा माने तो यह मिथ्यात्व का दोष है। इन दोषों के बीच अन्तर को तो न जाने और मैं सत्य के पथ में जाता हूँ - ऐसा मानता है, वह स्वयं को ठगता है। जैसा वस्तुस्वरूप है, वैसा वह नहीं मानता । यदि परिभ्रमण को दूर करना हो तो इन लक्षणों से मिथ्यात्व को पहिचानकर दूर करना चाहिए। पर के कारण करुणा नहीं आती और ज्ञानस्वभाव में से भी करुणा नहीं आती, अपितु अपनी वर्तमान कमजोरी से करुणा आती है। अज्ञानी मानता है कि पर जीव को दुखी देखकर करुणा आती है, उसने सत्य परमेश्वर की आज्ञा नहीं मानी और वह उनकी सेवा नहीं करता, किन्तु वह मिथ्यात्व और राग की सेवा करता है। ___ इष्ट पदार्थ के प्रति राग होता है, वह मिथ्यात्व का अमर्यादित दोष है। स्वयं के कारण राग होता है, वह अल्पचारित्र दोष है, पर के कारण राग माने, उसका ज्ञान टेढ़ा हो गया है, वह तिरछा शरीरवाला तिर्यंच होनेवाला है। एकेन्द्रिय, निगोद, वनस्पति वह तिर्यंचगति में है, मिथ्यात्व की विपरीतता करनेवाला अल्पकाल में निगोद में जायेगा; इसलिए वस्तुस्वरूप की पहचान कर। परपदार्थ अनिष्ट नहीं है, फिर भी अज्ञानी पर को अनिष्ट मानकर द्वेष करता है। विष्टा, रोगादि अनिष्ट नहीं है, वह तो परमाणु द्रव्य का पर्याय धर्म है, तेरा ज्ञेय है; फिर भी उन्हें अनिष्ट मानना मिथ्यात्वभाव है। ज्ञानी को कभी अल्पद्वेष आए, किन्तु वह पर के कारण द्वेष का होना नहीं मानता। ज्ञानस्वभाव में से द्वेष नहीं आता; अपितु चारित्र की कमजोरी के कारण द्वेष आता है - ऐसा वे मानते हैं, जबकि मिथ्यादृष्टि जीव पर के कारण द्वेष मानता है। पर के कारण दुख नहीं और ज्ञानस्वभाव से भी दुख नहीं आया है। परपदार्थ के कारण करुणा होती है, इष्ट-अनिष्ट की कल्पना होती है - ऐसा मानना ही भावमरण है। यदि तुझे जीवित होना हो तो मोह को पहिचानकर उसका नाश करना योग्य है।" ध्यान देनेयोग्य बात यह है कि यहाँ करुणाभाव को मोह का चिह्न बताया गया है। करुणाभाव को यदि चारित्रमोह का चिह्न बताया होता, तब तो कोई बात ही नहीं थी, क्योंकि करुणा शुभभावरूप राग में आती है और पुण्यबंध का कारण है; किन्तु यहाँ तो उसे दर्शनमोह अर्थात् मिथ्यात्व का चिह्न बताया गया है; जो करुणा को धर्म माननेवाले जगत को एकदम अटपटा लगता है। आचार्य जयसेन को भी इसप्रकार का विकल्प आया होगा। यही कारण है कि वे नयों का प्रयोग कर संधिविच्छेद के माध्यम से करुणाभाव शब्द का करुणाभाव और करुणा का अभाव - ये दो अर्थ करते हैं। उनके लिए यह सब अटपटा भी नहीं लगता, क्योंकि वे सदा ही अपनी बात को नयों के माध्यम से स्पष्ट करते आये हैं। ___ पुण्य के बंध के कारण शुभभावरूप होने से वह व्यवहारधर्म है भी; किन्तु उक्त सम्पूर्ण मंथन के उपरान्त यह बात तो स्पष्ट हो ही गयी है कि दूसरों को मारने-बचाने और सुखी-दुखी करने की मिथ्यामान्यतापूर्वक होनेवाला करुणाभाव सचमुच मोह (मिथ्यात्व) का ही चिह्न है। जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ कर ही नहीं सकता तो फिर बचाने १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२५१-२५२ २. वही, पृष्ठ-२५३ १.दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२४७ ३. वही, पृष्ठ-२५० २. वही, पृष्ठ-२४९ ४. वही, पृष्ठ-२५१

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