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प्रवचनसार अनुशीलन
गाथा-७६
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सिद्ध हुआ।
इन्द्रियसुख, दुख ही है; क्योंकि वह पराधीन है, अत्यंत आकुलता वाला है, विपक्ष की उत्पत्तिवाला है, वह परिणाम से दुःसह है और अत्यन्त अस्थिर है; इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि पुण्य भी दुख का ही साधन है।
पुण्य-पाप दोनों ही बंध के कारण हैं; फिर भी यदि कोई पुण्य को अच्छा और पाप को खराब मानकर इनमें भेद करता है तो वह मिथ्यादृष्टि है, जो घोर संसार में रखड़ता (परिभ्रमण करता) है।"
यह एक दिशाबोधक सरल सुबोध गाथा है; जिसमें सांसारिक सुख की दुखरूपता को अत्यन्त मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसमें कहा गया है कि संसार जिस विषयसुख की कामना करता है, जिसके लिए आकाश-पाताल एक कर देता है, सागर में गोता लगाता है, आकाश में गुलाचे भरता है और जमीन को फोड़कर पाताल में जाने को तैयार रहता है, इस बेशकीमती नरभव को दाव पर लगा देता है; आखिर उस सुख में ऐसा है ही क्या ?
वस्तुत: यह इन्द्रियसुख सुख है ही नहीं। यह तो आकुलतारूप होने से दुख ही है।
इस गाथा में इसे दुखरूप सिद्ध करने के लिए पाँच कारण दिए हैं।
सबसे पहली बात तो यह है कि यह पराधीन है। यह तो जगत में प्रसिद्ध ही है कि पराधीन सपनहु सुख नाहीं - पराधीन व्यक्ति को स्वप्न में भी सुख की प्राप्ति नहीं होती। यह संसारी प्राणी इन्द्रियों के आधीन है। यदि इन्द्रियाँ भोगने के काबिल नहीं हुई तो प्राप्त भोग्य सामग्री और अधिक संताप देती है। दूसरे भोग्य सामग्री भी तो पर है, उसकी उपलब्धता भी सदा सहज नहीं है। १.दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१६९
२. वही, पृष्ठ-१६९
जब दांत थे, तब चना नहीं मिले और जब चना उपलब्ध हुए, तबतक दांत गायब हो चुके थे। मान लो दांत भी हैं और चना भी हैं, पर भूख ही न हो तो, खाने का भाव ही न हो तो फिर क्या हो? इसीप्रकार भोगसामग्री भी हो और भोगने में इन्द्रियाँ भी सबल हों; पर भोगने के भाव बिना भोगा जा सकना संभव नहीं है।
दूसरे इन्द्रियसुख में बाधाएँ भी कम नहीं है। इन्द्रियाँ सबल हों, भोग सामग्री भी हो और भोगने के भाव भी प्रबल हों; पर कोई पूज्य पुरुष आ जाये, मित्र आ जाये या फिर शत्रु ही क्यों न आ जाय; सब बाधाएँ ही हैं; क्योंकि उक्त परिस्थिति में उपभोग संभव नहीं है।
तीसरी बात यह है कि पुण्योदय से प्राप्त होनेवाले भोग कभी भी विघट सकते हैं; क्योंकि पुण्योदय न जाने कब समाप्त हो जाय । पापोदय भी तो कभी भी आ सकता है। इसप्रकार ये भोग कभी भी विघटित हो जानेवाले विच्छिन्न हैं।
चौथी बात यह है कि ये बंध के कारण हैं; क्योंकि भोगने के भाव पापभाव हैं और पापभाव पापबंध का ही कारण होता है। इसप्रकार इन्द्रियसुख अभी तो दुखरूप है ही, भविष्य में भी दुख देनेवाला ही है।
पाँचवें ये विषम हैं, अस्थिर हैं, घटते-बढ़ते रहते हैं।
इसप्रकार यह इन्द्रियसुख सर्वथा त्यागनेयोग्य है; एकमात्र अतीन्द्रिय आनन्द ही प्राप्त करनेयोग्य है, उपादेय है।
बस, यही बताया गया है इस सरल-सुबोधगाथा में।
मूलत: बात यह है कि जबतक इन्द्रियसुख दुखरूप भासित नहीं होगा; तबतक पुण्य में उपादेयबुद्धि बनी ही रहेगी। अत: यह जानना अत्यन्त
आवश्यक है कि इन्द्रिय सुख भी दुख ही है तथा पुण्य भी पाप के समान ही हेय है, त्यागनेयोग्य है।
पुराने जमाने में उपभोग की सभी वस्तुओं को छुपाकर रखा जाता