Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 184
________________ ३६० प्रवचनसार अनुशीलन पर्याय को आत्मा की तरफ झुकाए तो वहाँ गुण-गुणी भेद नहीं रहता; यहाँ इस बात को क्रम से समझाते हैं। यदि कोई मोती के दाने और सफेदी का विचार करे तो उसे हार पहनने का सुख नहीं आता। वैसे द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद के विचार में अटकने से सम्यग्दर्शन नहीं होता। इसप्रकार की जानकारी, मनन और स्वाध्याय होना चाहिए। अंतर में झुकने से धर्म होता है; जो इस विधि को नहीं जानता, उसका वीर्य अन्य काम किया करता है। यह चौथै गुणस्थान को प्राप्त करने के समय की बात चलती है। इसका बारम्बार स्वाध्याय करना चाहिए। इसके बदले अज्ञानी जीव विपरीतता में चला जाता है। अरहन्त भगवान आदर्श हैं, उन्हें मुमुक्षु जीव ज्ञान में लेकर अपने साथ मिलान करते हैं। जैसे मोती के प्रत्येक दाने को और सफेदी को हार में अन्तर्गत करने पर मात्र हार ही जाना जाता है; वैसे ही आत्मा की पर्यायों को और गुणों को आत्मा में ही अंतगर्भित करते हैं। दोनों एक ही साथ अंतर्गर्भित होते हैं। १. आत्मा परिणमित होनेवाला है - ऐसा भेद । २. यह मेरा परिणाम है - ऐसा भेद । ३. पूर्व अवस्था बदलकर नई अवस्था होती है ऐसा भेद । ऐसे तीनप्रकार के भेद स्वभावसन्मुख दशा होने पर नाश को प्राप्त हो जाते हैं; क्योंकि स्वभावसन्मुख होने पर भेदबुद्धि दूर हो जाती है। यही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय है। साधक को भी शुभराग आता है; किन्तु वह सम्यग्दर्शन का कारण नहीं है। जिसने अरहंत भगवान के द्रव्य-गुण-पर्याय के स्वरूप को जाना है, १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ- २०० ३. वही, पृष्ठ- २०२ २. वही, पृष्ठ- २०१ ४. वही, पृष्ठ- २०३ गाथा-८० ३६१ वह जीव अल्पकाल में मुक्ति का पात्र हुआ है। अरहंत भगवान आत्मा हैं, उसमें अनंत गुण हैं, उनकी केवलज्ञानादि पर्याय है, उसके निर्णय में आत्मा के अनंतगुण और पूर्ण पर्याय की सामर्थ्य का निर्णय आ जाता है। उस निर्णय के बल से अल्पकाल में केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, इसमें संदेह को कहीं स्थान नहीं है।' अरहंत के जितने द्रव्य-गुण-पर्याय हैं, उतने ही द्रव्य-गुण- पर्याय मेरे हैं। अरहंत को पर्यायशक्ति परिपूर्ण है तो मेरी पर्याय की शक्ति भी परिपूर्ण ही है, वर्तमान में उस शक्ति को रोकनेवाला जो विकार है, वह मेरा स्वरूप नहीं है। उस निर्णय करनेवाले ने केवलज्ञान की परिपूर्ण शक्ति को अपनी पर्याय की स्व-परप्रकाशक शक्ति में समाविष्ट कर लिया है, मेरे ज्ञान की पर्याय इतनी शक्तिसंपन्न है कि निमित्त की सहायता के बिना और पर के लक्ष्य बिना केवलज्ञानी अरहंत के द्रव्य-गुण-पर्याय को समा लेती है, निर्णय में ले लेती है । यदि देव-गुरु-शास्त्र को यथार्थतया पहचान ले तो उसे अपने आत्मा की पहचान अवश्य हो जाय और उसका दर्शनमोह निश्चय से क्षय हो जाय । ४ द्रव्य - गुण तो सदा शुद्ध ही हैं, किन्तु पर्याय की शुद्धि करनी है; पर्याय शुद्धि करने के लिए यह जान लेना चाहिए कि द्रव्य, गुण, पर्याय की शुद्धता का स्वरूप कैसा है ? अरिहन्त भगवान का आत्मा द्रव्य, गुण और पर्याय तीनों प्रकार से शुद्ध है और अन्य आत्मा पर्याय की अपेक्षा से पूर्ण शुद्ध नहीं है; इसलिए अरहंत का स्वरूप जानने को कहा है। जिसने अरहंत के द्रव्य-गुण- पर्याय स्वरूप पदार्थ को जाना है, उसे शुद्ध स्वभाव १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३३५ ३. वही, पृष्ठ-३३९ २. वही, पृष्ठ-३३७ ४. वही, पृष्ठ-३४०

Loading...

Page Navigation
1 ... 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227