Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

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Page 200
________________ ३९२ प्रवचनसार अनुशीलन पर के अनुकूल होना चाहता है; इसप्रकार वह मिथ्याभाव में रुकता हुआ संसार की वृद्धि करता है। इसतरह अबंधस्वभावी आत्मा ही वर्तमान भूलरूप पर्याय द्वारा मोहभाव के कारण बंध को प्राप्त होता है । इसलिए मोक्ष के इच्छुक जीवों को पर के प्रति सावधानीरूप मिथ्यात्व को तथा अनुकूलता के प्रति राग और प्रतिकूलता में द्वेष को मूल में से नाश कर देना चाहिए।" इसप्रकार इन गाथाओं और उनकी टीकाओं में यह कहा गया है कि द्रव्य-गुण-पर्याय संबंधी मूढ़ता ही मोह है और इस मोह से आच्छादित जीव का राग-द्वेषरूप परिणमन क्षोभ है। इन मोह और क्षोभरहित आत्मपरिणाम ही समताभाव है, धर्म है। ये मोह-राग-द्वेष ही बंध के कारण हैं; इसकारण नाश करनेयोग्य हैं, हेय हैं। जिसप्रकार धतूरा खानेवाला पुरुष लौकिक विवेक से शून्य हो जाता है; उसीप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय संबंधी अज्ञान के कारण यह आत्मा तत्त्वज्ञान संबंधी विवेक से शून्य हो जाता है; उसे स्व-पर का विवेक (भेदज्ञान) नहीं रहता है; इसप्रकार परद्रव्य को स्वद्रव्य, परगुणों को स्वगुण और पर की पर्यायों को अपनी पर्यायें मानता है। ___ जिसप्रकार बाढ़ के प्रबल प्रवाह से नदियों के पुल दो भागों में विभक्त हो जाते हैं; उसीप्रकार उक्त मिथ्यामान्यता के कारण या अज्ञान के कारण यह अज्ञानी आत्मा कर्म को पुण्य और पाप, शुभ और अशुभ - इसप्रकार के दो भागों में विभक्त कर लेता है और अनुकूल लगनेवालों में राग तथा प्रतिकूल लगनेवालों में द्वेष करने लगता है। इसप्रकार इन मोह-राग-द्वेष भावों से बंधन को प्राप्त होता हुआ आकुल-व्याकुल होता है। यहाँ आत्मा मोह, राग और द्वेष से किसप्रकार बंधन में पड़ता हैइस बात को समझाने के लिए आचार्यदेव बंधन में पड़े हुए तीनप्रकार के हाथियों का उदाहरण देते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२३७ २. वही, पृष्ठ-२३७ गाथा-८३-८४ जंगली हाथियों को पकड़नेवाले शिकारी लम्बा-चौड़ा गड्डा खोदकर उसे जंगली झाड़ियों से ढक देते हैं। जिसप्रकार उक्त गड्डे से बेखबर हाथी तत्संबंधी अज्ञान के कारण उक्त गड्ढे में गिर जाते हैं; उसीप्रकार द्रव्यगुण-पर्याय संबंधी अज्ञान के कारण यह आत्मा बंधन को प्राप्त होता है। जंगली हाथियों को पकड़नेवाले दूसरा प्रयोग यह करते हैं कि जवान हथिनियों को इसप्रकार ट्रेण्ड करते हैं कि वे कामुक हाथियों को आकर्षित करती हुई उक्त गड्डे के पास लाती हैं। स्वयं तो जानकार होने से गड्डे में गिरने से बच जाती हैं; पर अज्ञानी हाथी अज्ञान के साथ-साथ हथिनियों के प्रति होनेवाले राग के कारण बंधन को प्राप्त होता है; उसीप्रकार यह अज्ञानी जीव पंचेन्द्रिय विषयों के रागवश बंधन को प्राप्त होता है। तीसरा प्रयोग यह है कि मदोन्मत्त हाथियों को इसप्रकार ट्रेण्ड किया जाता है कि वे जंगली हाथी को युद्ध के लिए ललकारते हैं। उक्त हाथी जंगली हाथी को युद्ध के बहाने उक्त गड्डे के पास लाता है और लड़ते समय स्वयं तो जानकार होने से सावधान रहता है; किन्तु उक्त गड्डे से अजानकार हाथी द्वेष के कारण बंधन को प्राप्त होता है। इसीप्रकार यह अज्ञानी आत्मा भी अनिष्ट से लगनेवाले पदार्थों से द्वेष करके बंधन को प्राप्त होते हैं। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि जंगली हाथी के समान ही यह आत्मा भी अज्ञान (मिथ्यात्व) से, राग से और द्वेष से बंधन को प्राप्त होता है; इसलिए तत्त्वसंबंधी अज्ञान, राग और द्वेष सर्वथा हेय हैं, त्यागनेयोग्य हैं; जड़मूल से नाश करनेयोग्य हैं। ___ यहाँ विशेष ध्यान देनेयोग्य बात यह है कि यहाँ द्रव्य-गुण-पर्याय संबंधी अज्ञान को ही बंध का कारण बताया गया, अन्य अप्रयोजनभूत वस्तुओं संबंधी अज्ञान को नहीं । तात्पर्य यह है कि आचार्यदेव ने इस प्रकरण में तत्त्वज्ञान संबंधी भूल को ही भूल कहा है। यहाँ अन्य लौकिक भूलों से कोई लेना-देना नहीं है।

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