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प्रवचनसार अनुशीलन उक्त दर्शनमोह से आच्छन्न जीव राग-द्वेषरूप होकर निराकुल आत्मतत्त्व के विपरीत आकुलता के कारण क्षोभ (अस्थिरता) को प्राप्त होता है।
दर्शनमोह और राग व द्वेषरूप चारित्रमोह - इसप्रकार मोह तीन प्रकार का होता है। ___ मोह-राग-द्वेषरूप परिणत बहिरात्मा जीव के स्वाभाविक सुख से विपरीत नरकादि दुखों के कारणभूत अनेकप्रकार का बंध होता है। अत: रागादि से रहित शुद्धात्मा के ध्यान द्वारा वे राग-द्वेष-मोह पूर्णत: नष्ट करनेयोग्य हैं।"
इन गाथाओं के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी दो मनहरण कवित्त, दो षट्पद और एक दोहा - इसप्रकार पाँच छन्दों को प्रस्तुत करते हैं; जो मूलत: पठनीय हैं। निष्कर्षरूप में जो दोहा प्रस्तुत किया गया है, वह इसप्रकार है -
(दोहा) तातें इस उपदेश को, सुनो मूल सिद्धन्त ।
मोह राग अरु द्वेष कौ, करौ भली विधि अंत ।।३८।। उक्त उपदेश में मूल सिद्धान्त यह बताया गया है कि मोह-राग-द्वेष का अंत भलीभाँति करना चाहिए।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी उक्त छन्द का भाव इसप्रकार समझाते हैं
“द्रव्य-गुण-पर्याय की ना समझी ही मोहभाव है। जिसप्रकार धतूरा पिया हुआ मनुष्य सफेद चीज को पीली देखता है, किन्तु वास्तव में वस्तु ऐसी नहीं है। इसीप्रकार भगवान आत्मा द्रव्य से शुद्ध है, गुण से शुद्ध है; पर्याय को स्वभाव की ओर झुकाये तो वह शुद्ध है, नहीं तो कितनी ही पर्यायें शुद्ध हैं और कितनी ही अशुद्ध हैं; इसका जिसे भान नहीं वह मोही है।' १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२२४
गाथा-८३-८४
३९१ साततत्त्व की भूल को मोह-मिथ्यात्व कहते हैं। मिथ्यात्व का पाप सभी पापों का बाप है । मिथ्या द्वार में से राग-द्वेष कौतूहलता आदि उत्पन्न होते हैं। मिथ्यात्व के दूर हो जाने के बाद राग-द्वेष लंगड़े हो जाते हैं। जगत में अनादि से तत्त्व का अनिर्णय है, इसलिए मोहभाव है।' __वास्तविक स्वरूप से आत्मा शुद्ध है। उसके सन्मुख न होनेपर इन्द्रियों के विषयों की ओर झुककर उनमें भेद करता है और पुण्य-पाप में अटकता है। परद्रव्य को स्वद्रव्यरूप, परगुण को स्वगुणरूप और परपर्याय को स्वपर्यायरूप अंगीकार करता है। समय-समय शुभाशुभ को ग्रहण करता हुआ ज्ञातापने को छोड़कर, राग-द्वेष करता है। इन्द्रियाँ तो मुर्दा हैं, फिर भी उनकी रुचि करके द्वैत में अद्वैत प्रगट करता है।
पुण्य-पाप के विकल्प भी ज्ञेय हैं, फिर भी पुण्य अच्छा है और पाप बुरा - इसप्रकार द्वैत की कल्पना करके, ज्ञानस्वभाव को तोड़ डालता है। जैसे बाढ़ का पानी पुल को तोड़ सकता है; वैसे ही विरुद्ध भाव द्वारा अज्ञानी ज्ञातास्वभाव को तोड़ डालता है। आत्मा जाननेवाला है । जगत की वस्तुएँ जाननेयोग्य हैं।
निर्धनता, धनवानपना, पुत्रवाला होना अथवा बांझपना मात्र जाननेयोग्य है; उनमें इष्ट-अनिष्टपना नहीं है; फिर भी यह मुझे इष्ट है और यह मुझे अनिष्ट है - इसप्रकार भेद की कल्पना करता है, जबकि वस्तु में इष्ट-अनिष्टता नहीं है। परवस्तु से अपना भला-बुरा नहीं हो सकता; फिर भी ऐसा मानता है; इसलिए वह मिथ्यादृष्टि है। राग-द्वेष-मोह ही दुःख का मूल हैं।
जिसप्रकार हाथी अज्ञान से, राग से और द्वेष से अनेकप्रकार के बन्धनों को प्राप्त होता है; वैसे ही जैसा चैतन्यस्वरूप है, वैसा नहीं मानते हुए, पुण्य से लाभ होता है, बाह्य संयोग मुझे ठीक रहे, मैं दूसरे को अनुकूल होऊँ - ऐसा मिथ्याभाव अज्ञानी करता है। अपने ज्ञानस्वभाव को भूलकर १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२२४ २. वही, पृष्ठ-२२७ ३. वही, पृष्ठ-२२९