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प्रवचनसार अनुशीलन
गाथा-८२
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पालने से, पुण्य करने से, धर्म होगा ऐसी व्यग्रता थी, अब वह व्यग्रता मिट गई है।"
उक्त गाथा और उसकी टीका में आचार्यदेव यह बात अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि ८० व ८१वीं गाथा में बताये गये मुक्ति के मार्ग को छोड़कर मुक्ति का अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। आजतक जितने भी जीव मोक्ष गये हैं; वे सभी इसी मार्ग से मोक्ष गये हैं और जो भविष्य में जावेंगे, वे सभी इसी मार्ग से जावेंगे।
अरहंत भगवन्तों ने मुक्ति जिसप्रकार प्राप्त की है; वही मार्ग उनकी दिव्यध्वनि में आया है। ऐसा नहीं है कि स्वयं करे कुछ और दूसरों को बतावे कुछ और । जो किया, वही बताया।
आचार्य अमृतचन्द्रदेव कहते हैं कि यह सब जानकर मेरी मति व्यवस्थित हो गई है। अब मुझे अन्य कोई विकल्प नहीं है। अतः हे भव्यजीवो ! तुम भी अपने चित्त को अधिक मत भ्रमावो; अपने विकल्पों को विराम दो और इसी रास्ते पर चल पड़ो।
वे तो यहाँ तक लिखते हैं कि अधिक प्रलाप से बस होओ। देखो! मुक्तिमार्ग की शोध-खोज संबंधी चर्चा-वार्ताको आचार्यदेव प्रलाप कह रहे हैं। __इसके बाद आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति टीका में एक गाथा प्राप्त होती है; जिसमें रत्नत्रय के आराधक सन्तों को नमस्कार किया गया है।
गाथा मूलत: इसप्रकार है - दसणसुद्धा पुरिसा णाणपहाणा समग्गचरियत्था। पूजासक्काररिहा दाणस्स य हि ते णमो तेसिं ।।७।।
(हरिगीत) अरे समकित ज्ञान सम्यक्चरण से परिपूर्ण जो।
सत्कार पूजा दान के वे पात्र उनको नमन हो ।।७।। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३१९
जो पुरुष सम्यग्दर्शन से शुद्ध, ज्ञान में प्रधान और परिपूर्ण चारित्र में स्थित हैं; वे ही पूजा, सत्कार और दान देनेयोग्य हैं; अत: उन्हें नमस्कार हो।
उक्त गाथा में निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र संपन्न मुनिराज ही पूज्य है, आदर-सत्कार करनेयोग्य है और दान देनेयोग्य है - यह बताते हुए उक्त गुणों से सम्पन्न मुनिराजों को सहजभाव से नमस्कार किया गया है।
__ स्वभाव पवित्र है, हुआ नहीं है। जो पवित्र होता है, उसके आश्रय से पवित्रता प्रगट नहीं होती। जो स्वयं स्वभाव से पवित्र है, जिसे पवित्र होने की आवश्यकता नहीं, जो सदा से ही पवित्र है; उसके आश्रय से ही पवित्रता प्रगट होती है। वही परमपवित्र होता है, वही पतित-पावन होता है; जिसके आश्रय में पवित्रता प्रगट होती है, पतितपना नष्ट होता है।
त्रिकाली ध्रुवतत्त्व पवित्र हुआ नहीं है, वह अनादि से पवित्र ही है, उसके आश्रय से ही पर्याय में पवित्रता, पूर्ण पवित्रता प्रगट होती है। वह परमपदार्थ ही परमशुद्धनिश्चयनय का विषय है।
पवित्र पर्याय सोना है, पारस नहीं। परमशुद्धनिश्चयनय का विषय त्रिकाली ध्रुव पारस है, जो सोना बनाता है, जिसके छूने मात्र से लोहा सोना बन जाता है। सोने को छूने से लोहा सोना नहीं बनता, पर पारस के छूने से वह सोना बन जाता है। पवित्र पर्याय के, पूर्ण पवित्र पर्याय के आश्रय से भी पर्याय में शुद्धता प्रगट नहीं होती। पर्याय में पवित्रता त्रिकाली शुद्धद्रव्य के आश्रय से प्रगट होती है। अत: ध्यातापुरुष भावना भाता है कि मैं तो वह परमपदार्थ हूँ, जिसके आश्रय से पर्याय में पवित्रता प्रगट होती है। मैं प्रगट होनेवाली पवित्रता नहीं; अपितु नित्य, प्रकट, परमपवित्र पदार्थ हूँ। मैं सम्यग्दर्शन नहीं; मैं तो वह हूँ, जिसके दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन है। मैं सम्यग्ज्ञान भी नहीं; मैं तो वह हैं, जिसके ज्ञान का नाम सम्यग्ज्ञान है। मैं चारित्र भी नहीं हूँ; मैं तो वह हूँ, जिसमें रमने का नाम सम्यक्चारित्र है।
- परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-३३५-३३६