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प्रवचनसार अनुशीलन मूलत: मिथ्यात्व आता है और चारित्रमोह में राग-द्वेष अर्थात् २५ कषायें आती हैं।
यहाँ मुख्यतः दर्शनमोह अर्थात् मिथ्यात्व के नाश की बात है । इस गाथा में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जो आत्मा को जानता है, उसका मोह (मिथ्यात्व) नाश को प्राप्त हो जाता है।
इसप्रकार यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि मिथ्यात्व के अभाव के लिए, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए निज भगवान आत्मा को जानना अत्यन्त आवश्यक है।
प्रश्न • गाथा में अरहंत भगवान को जानने की बात है और आप आत्मा को जानने की बात कह रहे हैं ?
उत्तर - मोह के नाश के लिए तो आत्मा को ही जानना आवश्यक है; किन्तु आत्मा को जानने के लिए अरहंत भगवान को द्रव्य-गुणपर्याय से जानना आवश्यक है। इसप्रकार आत्मा और परमात्मा - दोनों का जानना आवश्यक ही है।
एक बात और भी विशेष ध्यान देने योग्य है कि टीका में हेतु के रूप में कहा गया कि आत्मा (अपना आत्मा) और परमात्मा (अरहंत-सिद्ध) में कोई अन्तर नहीं है । जब अन्तर ही नहीं है तो फिर दोनों का जानना भी एक का ही जानना हुआ है न
वस्तुतः बात यह है कि अरहंत भगवान की पर्याय वीतरागी है और सर्वज्ञता से सम्पन्न है। उसे जानने का तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा के जानने के लिए वीतरागता और सर्वज्ञता का स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है।
आत्मा और परमात्मा के द्रव्य-गुण- पर्याय में द्रव्य और गुण की समानता तो निर्विवाद ही है; किन्तु पर्याय में जो अन्तर दिखाई देता है, वह वर्तमान पर्याय का है; आत्मा और परमात्मा - दोनों का त्रिकाली
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पर्यायस्वभाव तो समान ही है। तात्पर्य यह है कि हम और आप सभी त्रिकाल सर्वज्ञस्वभावी ही हैं।
सर्वज्ञता का स्वरूप समझे बिना देशनालब्धि संभव नहीं है और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए देशनालब्धि अनिवार्य है ।
अरहंत भगवान को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानने की शर्त में यह संकेत भी है कि बाह्य अतिशयों से उनकी पहिचान करनेवालों को आत्मा का ज्ञान नहीं होता ।
इसीप्रकार पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, तीर्थयात्रा आदि क्रियाकाण्ड से भी न तो आत्मा का जानना होता है और न मोह का नाश ही होता है। प्रश्न- मोह के नाश के लिए आत्मा के समान ही परमात्मा को जानना है कि दोनों के जानने में कुछ अन्तर है ?
उत्तर - अन्तर है; क्योंकि परमात्मा को तो मात्र जानना ही है, जानते ही नहीं रहना है, उन्हीं में लीन नहीं हो जाना है; किन्तु आत्मा को जानकर उसे जानते ही रहना है, उसी में जम जाना है, रम जाना है। परमात्मा का जानना तो एक सीढ़ी मात्र हैं, गन्तव्य नहीं; पर आत्मा को मात्र जानना ही नहीं है, निजरूप जानना है, उसी में अपनापन स्थापित करना है, उसी में समा जाना है।
परमात्मा के ध्यान से तो पुण्य का बंध होता है; पर आत्मा के ध्यान से कर्म कटते हैं; मिथ्यात्व का नाश होता है। मूलतः तो आत्मा को ही जानना है और परमात्मा को आत्मा को जानने के लिए जानना है। आत्मा निजरूप है और वह निजरूप से ही जाना जाता है तथा परमात्मा पररूप है और पररूप से ही जाना जाता है।
इसप्रकार इन दोनों के जानने में बहुत बड़ा अंतर है।
प्रश्न - कोरे जानने से काम हो जायेगा, करना कुछ भी नहीं है। यदि कुछ भी नहीं करना है तो काम होगा कैसे ?