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प्रवचनसार अनुशीलन
चिन्तामणिरत्न के चुराये जाने से अंतरंग में खेद को प्राप्त होता है; इसलिए मुझे राग-द्वेष के दूर करने के लिए अत्यन्त जागृत रहना चाहिए।"
यद्यपि आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं; तथापि वे ववगदमोहो का अर्थ दर्शनमोह (मिथ्यात्व) का नाश होना है - यह बात साफ-साफ शब्दों में लिख देते हैं।
प्रश्नोत्तर के माध्यम से एक बात और भी स्पष्ट करते हैं, जो इसप्रकार
प्रश्न - ७८वीं गाथा में यह कहा गया है कि शुद्धोपयोगी जीव देहज दुखों का क्षय करता है और यहाँ यह कहा जा रहा है कि जो ज्ञानी जीव राग-द्वेष छोड़ता है, वह शुद्धात्मा को प्राप्त करता है - दोनों ही कथनों से मोक्ष ही प्रतिफलित होता है। आखिर इन दोनों में अन्तर क्या है?
उत्तर - प्रथम कथन में शुभाशुभभाव संबंधी मूढ़ता का निराकरण किया गया है और दूसरे कथन में आप्त और आत्मा के स्वरूप विषयक मूढ़ता का निराकरण किया गया है।
कविवर वृन्दावनदासजी प्रवचनसार परमागम में इस गाथा का भाव पाँच छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जो मूलत: पठनीय हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"प्रथम मिथ्यात्व दूर करके फिर यह बात कहते हैं; क्योंकि पहले राग-द्वेष दूर नहीं होते, किन्तु प्रथम मिथ्यात्व दूर होता है।'
प्रथम मोह का क्षय कहा था और यहाँ राग-द्वेष की निर्मूलता कही है। आचार्य ने क्षय की ही बात ली है।
गाथा-८१
सम्यग्दर्शन प्राप्त करके जो जीव शुद्धात्मानुभूति स्वरूप वीतराग चारित्र का प्रतिबन्धक राग-द्वेष को छोड़ता है, वह शुद्धात्मा को प्राप्त होता है।
शुद्धात्मा की अनुभूति स्वरूप वीतरागता वह चारित्र है। उसके प्रतिबन्धक राग-द्वेष को छोड़ता है। यहाँ द्रव्यकर्म को चारित्र का प्रतिबन्धक नहीं कहा । श्री जयसेनाचार्य ने इस गाथा की टीका में राग-द्वेष को चारित्र का प्रतिबन्धक कहा है । जो राग-द्वेष को छोड़ता है, वह पुनः-पुन: रागद्वेषभावरूप परिणमित नहीं होता । वही अभेदरत्नत्रय परिणत जीव शुद्धशुद्ध एक स्वभावी आत्मा को प्राप्त होता है। भेदरत्नत्रय से मुक्ति को प्राप्त नहीं होता; किन्तु अभेदरत्नत्रय से मुक्ति को प्राप्त होता है; इसलिए जीव को सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर भी और तीन कषाय दूर होकर चारित्र प्राप्त करने पर भी राग-द्वेष के निवारण के लिए अत्यन्त सावधान रहना योग्य है।”
इसप्रकार इस गाथा में मात्र यही कहा गया है कि अरहंत भगवान को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से जानकर तथा उसीप्रकार अपने आत्मा को पहिचानकर, उसी में जमकर, रमकर दर्शनमोह अर्थात् मिथ्यात्व का नाश करनेवाला आत्मा भी यदि समय रहते चारित्रमोहनीय का अभाव नहीं करता अर्थात् राग-द्वेष अथवा कषायभावों को नहीं छोड़ता है तो शुद्धात्मा को सम्पूर्णत: उपलब्ध नहीं कर सकता है। ___ यहाँ एक प्रश्न संभव है कि इस गाथा की ऊपर की पंक्ति में तो यह कहा है कि जिसने मोह दूर किया है और आत्मतत्त्व को प्राप्त कर लिया है और दूसरी पंक्ति में यह कहा है कि यदि राग-द्वेष को छोड़े तो शुद्धात्मा को प्राप्त करता है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२०६ २. वही, पृष्ठ-२०७
१. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२०८ ३. वही, पृष्ठ-२०८-२०९