Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 186
________________ गाथा-८० ३६५ ३६४ प्रवचनसार अनुशीलन जाता है। आत्मा चेतन द्रव्य है और चैतन्य उसका विशेषण है। परमाणु में जो पुद्गल है सो द्रव्य है और वर्ण, गन्ध इत्यादि उसके विशेषण गुण अरहंत आत्मद्रव्य हैं और उस आत्मा में अनन्त सहवर्ती गुण हैं, वैसा ही मैं भी आत्मद्रव्य हूँ और मुझमें वे सब गुण विद्यमान हैं। इसप्रकार जो अरहंत के आत्मा को द्रव्य-गुणरूप में जानता है, वह अपने आत्मा को भी द्रव्य-गुणरूप में जानता है । द्रव्य-गुण तो जैसे अरहंत के हैं, वैसे ही सभी आत्माओं के सदा एकरूप हैं। द्रव्य-गुण में कोई अंतर नहीं है, अवस्था में संसार मोक्ष है। पर्याय का स्वभाव व्यतिरेकरूप है अर्थात् एक पर्याय के समय दूसरी पर्याय नहीं होती । गुण और द्रव्य सदा एकसाथ होते हैं; किन्तु पर्याय एक के बाद दूसरी होती है। अरहंत भगवान के केवलज्ञान पर्याय है, तब उनके पूर्व की अपूर्ण ज्ञानदशा नहीं होती। वस्तु के जो एक-एक समय के भिन्नभिन्न भेद हैं सो पर्याय है । कोई भी वस्तु पर्याय के बिना नहीं हो सकती। आत्मद्रव्य स्थिर रहता है और उसकी पर्याय बदलती रहती है। द्रव्य और गुण एकरूप हैं, उनमें भेद नहीं है; किन्तु पर्याय में अनेकप्रकार से परिवर्तन होता है; इसलिए पर्याय में भेद है। पहले द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप भिन्न-भिन्न बताकर फिर तीनों का अभेद द्रव्य में समाविष्ट कर दिया है। इसप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय की परिभाषा पूर्ण हुई। अरहंत भगवान के द्रव्य-गुण-पर्याय को भलीभाँति जान लेना ही धर्म है। अरहंत भगवान के द्रव्य, गुण, पर्याय को जाननेवाला जीव अपने आत्मा को भी जानता है। उसे जाने बिना दया, भक्ति, पूजा, तप, व्रत, ब्रह्मचर्य या शास्त्राभ्यास इत्यादि सब कुछ करने पर भी धर्म नहीं होता और मोह दूर नहीं होता। इसलिए पहले अपने ज्ञान के द्वारा अरहंत भगवान के द्रव्य-गुण-पर्याय का निर्णय करना चाहिए, यही धर्म करने के लिए प्रारम्भिक कर्तव्य है। __ अरहंत भगवान का स्वरूप सर्वत: विशुद्ध है अर्थात् वे द्रव्य से गुण से और पर्याय से सम्पूर्ण शुद्ध हैं; इसलिए द्रव्य-गुण-पर्याय से उनके स्वरूप को जानने पर उस जीव की समझ में यह आ जाता है कि अपना स्वरूप द्रव्य से, गुण से, पर्याय से कैसा है। इस आत्मा का और अरहंत का स्वरूप परमार्थतः समान है; इसलिए जो अरहंत के स्वरूप को जानता है, वह अपने स्वरूप को जानता है और जो अपने स्वरूप को जानता है, उसके मोह का क्षय हो जाता है। जिसने अपने ज्ञान के द्वारा अरहंत के द्रव्य-गुण-पर्याय को लक्ष्य में लिया है, उस जीव को अरहंत का विचार करने पर परमार्थ से अपना ही विचार आता है। अरहंत के द्रव्य-गुण पूर्ण हैं और उनकी अवस्था सम्पूर्ण ज्ञानमय है, सम्पूर्ण विकार रहित है, ऐसा निर्णय करने पर यह प्रतीति होती है कि अपने द्रव्य-गुण पूर्ण हैं और उनकी अवस्था संपूर्ण ज्ञानरूप, विकार रहित होनी चाहिए। यद्यपि यहाँ विकल्प है तथापि विकल्प के द्वारा जो निर्णय कर लिया है, उस निर्णयरूप ज्ञान में से ही मोक्षमार्ग का प्रारम्भ होता है। जिसने मन के द्वारा आत्मा का निर्णय किया है। उसकी सम्यक्त्व के सन्मुख दशा हो चुकी है। पर्याय को चिद्विवर्तन की ग्रन्थि क्यों कहा है ? पर्याय स्वयं तो एक समय मात्र के लिए है; परन्तु एक समय की पर्याय से त्रैकालिक द्रव्य को जानने की शक्ति है। एक ही समय की पर्याय में त्रैकालिक द्रव्य का निर्णय समाविष्ट हो जाता है। पर्याय की ऐसी शक्ति बताने के लिए उसे चिद्विवर्तन १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३५८ २. वही, पृष्ठ-३५८ ३. वही, पृष्ठ-३५८ ४. वही, पृष्ठ-३५९ ५. वही, पृष्ठ-३५९ १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३५६ २. वही, पृष्ठ-३५७ ३.वही, पृष्ठ-३५७-३५८

Loading...

Page Navigation
1 ... 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227