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गाथा-७७
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प्रवचनसार अनुशीलन वह जीव संसारपर्यन्त (जबतक संसार है, तबतक) शारीरिक दुख का ही अनुभव करता है।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को निश्चयव्यवहार की संधिपूर्वक इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“व्यवहारनय से द्रव्यपुण्य और द्रव्यपाप में भेद है, अन्तर है; अशुद्ध निश्चयनय से भावपुण्य और भावपाप और उनके फलस्वरूप होनेवाले सुख-दुख में भेद है, अन्तर है; किन्तु शुद्धनिश्चयनय से शुद्धात्मा से भिन्न होने के कारण इनमें भेद नहीं है, अन्तर नहीं है।
इसप्रकार शुद्धनिश्चयनय से पुण्य और पाप में जो व्यक्ति अभेद नहीं मानता है; वह देवेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, कामदेव आदि पदों के निमित्त से निदानबंधरूप से पुण्य को चाहता हुआ निर्मोह शुद्धात्मतत्त्व से विपरीत दर्शनमोह-चारित्रमोह से आच्छादित होता हुआ, सोने की बेड़ी और लोहे की बेड़ी के समान पुण्य और पाप - दोनों से बंधा हुआ संसाररहित शुद्धात्मा से विपरीत संसार में भ्रमण करता है - यह अर्थ है।”
समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य जयसेन पुण्य-पापाधिकार की समाप्ति पर ऐसा लिखते हैं कि इसप्रकार यह पापाधिकार समाप्त हुआ।
फिर स्वयं प्रश्न उठा कर इस बात का स्पष्टीकरण करते हैं कि निश्चय नय से पाप के समान पुण्य भी स्वभाव से पतित करनेवाला होने के कारण पाप ही है; इसकारण एक अपेक्षा से यह अधिकार पापाधिकार ही है।
वैसे तो आचार्य अमृतचन्द्र और जयसेन - दोनों ने समान अर्थ ही किया है। दोनों ही एक स्वर से यह स्वीकार कर रहे हैं कि जो अज्ञानी जीव 'पुण्य और पाप में अन्तर नहीं है' - इस बात को स्वीकार नहीं करता; वह संसारी प्राणी अनंतकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है। फिर भी आचार्य
जयसेन को ऐसा लगा कि यह गाथा विशेष स्पष्टीकरण की अपेक्षा रखती है। यही कारण है कि उन्होंने उक्त तथ्य को निश्चय-व्यवहारनयों के माध्यम से स्पष्ट कर दिया है।
'वह अपार घोर संसार में परिभ्रमण करेगा' यह पद भी विशेष स्पष्टीकरण की अपेक्षा रखता है । अपार घोर संसार का अर्थ 'अनन्तकाल तक भयंकर संसार में भ्रमेगा' - यह भी किया जा सकता है, तथापि आशय यही है कि जबतक वह अपनी इस भूल को सुधारेगा नहीं, तबतक संसार में रुलेगा। भूल सुधार लेने पर वह अल्पकाल में भी मोक्ष जा सकता है। यही कारण है कि आचार्य जयसेन इसमें अभव्य की अपेक्षा लगा देते हैं। वे कहते हैं कि पुण्य और पाप को समान नहीं माननेवाला अभव्य जीव अनंतकाल तक घोर संसार में परिभ्रमण करेगा।
उक्त सम्पूर्ण कथन का स्पष्ट अर्थ यह है कि भले ही व्यवहारनय या अशुद्धनिश्चयनय से पुण्य-पापकर्म, पुण्य-पापभाव और उनके फल में प्राप्त होनेवाले सुख-दुख में अन्तर बताया गया हो; तथापि निश्चय से परमसत्य बात तो यही है कि जो व्यक्ति पंचेन्द्रिय विषयों में सुख मानता हुआ जबतक पुण्य में उपादेय बुद्धि रखेगा, उसे पाप के समान ही बंध का कारण नहीं मानेगा; तबतक वह जीव इस मिथ्या मान्यता के कारण संसार में ही परिभ्रमण करेगा।
ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ जिस पुण्यभाव को पापभाव के समान हेय बताया जा रहा है; वह अज्ञानी गृहस्थों के होनेवाले शुभभावरूप पुण्य नहीं है; अपितु जिस पुण्य से अहमिन्द्रादि पदों की प्राप्ति होती है, ऐसे चौथे काल के मुनिराजों को होनेवाले पुण्य की बात है; क्योंकि गृहस्थ तो अहमिन्द्रादि पद प्राप्त ही नहीं करते हैं। गृहस्थ तो सोलहवें स्वर्ग के ऊपर जाते ही नहीं हैं; वे कल्पोपपन्न ही हैं; कल्पातीत नहीं।
इसीप्रकार पंचमकाल में भी कोई अहमिन्द्र पद प्राप्त नहीं करता,