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गाथा-७८
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प्रवचनसार गाथा-७८ विगत गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त कि पुण्य-पापकर्म, पुण्यपापभाव और उसके फल में प्राप्त होनेवाले लौकिक सुख-दुख एक समान ही हेय हैं, दुखरूप हैं, दुख के कारण हैं; इस बात को स्वीकार नहीं करनेवाले अपार घोर संसार में परिभ्रमण करते हैं; अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि जो ज्ञानीजन इस बात को अच्छी तरह जानते हैं; इसलिए वे अनंतसुख के कारणरूप शुद्धोपयोग को अंगीकार करते हैं, अनंतसुख को प्राप्त करते हैं और देहोत्पन्न दुखों का क्षय करते हैं।
गाथा मूलत: इसप्रकार हैएवं विदिदत्थो जो दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा। उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहब्भवं दुक्खं ।।७८।।
(हरिगीत) विदितार्थजन परद्रव्य में जो राग-द्वेष नहीं करें।
शुद्धोपयोगी जीव वेतनजनित दुःख को क्षय करें।।७८।। इसप्रकार वस्तुस्वरूप को जानकर जो द्रव्यों के प्रति राग व द्वेष को प्राप्त नहीं होता; वह उपयोग विशुद्ध होता हुआ देहोत्पन्न दुख का क्षय करता है।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"जो जीव शुभ और अशुभभावों के अविशेष दर्शन (समानता की श्रद्धा) से वस्तुस्वरूप को भलीभाँति जानता है और स्व और पर - ऐसे दो विभागों में रहनेवाली समस्त पर्यायों सहित समस्त द्रव्यों के प्रति राग
और द्वेष सम्पूर्णत: छोड़ता है; वह जीव एकान्त से उपयोग विशुद्ध (शुद्धोपयोगी) होने से, जिसने परद्रव्य का अवलम्बन छोड़ दिया है;
ऐसा वर्तता हुआ - लोहे के गोले में से लोहे के सार का अनुसरण न करनेवाली अग्नि के समान - प्रचण्ड घन के आघात समान शारीरिक दुख का क्षय करता है।
इसलिए यही एक शुद्धोपयोग मेरी शरण है।"
देखो, यह शुभपरिणामाधिकार चल रहा है और आचार्यदेव कह रहे हैं कि मेरे तो एक शुद्धोपयोग ही शरण है। __ लोग समझते हैं कि यह शुभपरिणामाधिकार है; अतः इसमें तो शुभभाव करने की प्रेरणा दी होगी, शुभभाव की महिमा बताई होगी, शुभभाव के ही गीत गाये होंगे; किन्तु यहाँ तो शुभभावों को अशुभभावों के समान ही हेय बताया जा रहा है, पुण्य को पाप के समान ही हेय बताया जा रहा है; यहाँ तक कि सांसारिक सुख को भी दुख बताया जा रहा है; दुख के समान नहीं, अपितु साक्षात् दुख ही कहा जा रहा है।
आचार्यदेव ने मंगलाचरण के उपरान्त आरंभ से ही शुद्धोपयोग के गीत गाये हैं। शुद्धोपयोग और उसके फल के रूप में प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख को समझाने के लिए शुद्धोपयोग अधिकार के तत्काल बाद ज्ञानाधिकार और सुखाधिकार लिखे।
जब यह प्रश्न खड़ा हुआ कि अकेला अतीन्द्रियसुख ही सुख थोड़े है, इन्द्रियसुख भी तो सुख है। इसीप्रकार अकेला शुद्धोपयोग ही तो उपयोग नहीं है, शुभोपयोग और अशुभोपयोग भी तो उपयोग हैं। उनका भी तो प्रतिपादन होना चाहिए।
इसी प्रश्न के उत्तर में शुभपरिणामाधिकार लिखा गया हैजिसमें यह बताया गया है कि शुभपरिणाम के फल में पुण्यबंध होता है और पुण्योदय होने पर इन्द्रियसुख की प्राप्ति होती है, भोगसामग्री उपलब्ध होती है। भोगसामग्री के उपभोग का भाव पाप भाव है और वह पापबंध का कारण है। इसप्रकार यह शुभभाव भी तो अशुभभावके निमित्तों को ही जुटाता है।