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प्रवचनसार अनुशीलन
गाथा-७९
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किया गया है। इसकारण उनके कारण न तो विषयवस्तु में कोई विशेष बात आती है और न उनके न होने पर विषयक्रम में कोई व्यवधान आता है।
वे गाथाएँ मूलत: इसप्रकार हैं - तवसंजमप्पसिद्धो सुद्धो सग्गापवग्गमग्गकरो। अमरासुरिंदमहिदो देवो सो लोयसिहरत्थो ।। तं देवदेवदेवं जदिवरवसहं गुरुं तिलोयस्स । पणमंति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति ।।
(हरिगीत) हो स्वर्ग अर अपवर्ग पथदर्शक जिनेश्वर आपही। लोकाग्रथित तपसंयमी सुर-असुर वंदित आपही ।। देवेन्द्रों के देव यतिवरवृषभ तुम त्रैलोक्यगुरु ।
जो नमें तुमको वे मनुज सुख संपदा अक्षय लहें ।। तप और संयम से सिद्ध हुए अठारह दोषों से रहित वे देव, स्वर्ग तथा मोक्षमार्ग के प्रदर्शक, देवेन्द्रों और असुरेन्द्रों से पूजित तथा लोक के शिखर पर स्थित हैं।
जो देवों के भी देव हैं, देवाधिदेव हैं, मुनिवरों में श्रेष्ठ हैं और तीनलोक के गुरु हैं; उनको जो मनुष्य नमस्कार करते हैं, वे अक्षयसुख को प्राप्त करते हैं।
ये वही गाथाएँ हैं; जिनकी टीका में आचार्य जयसेन ने संयम और तप की अत्यन्त मार्मिक परिभाषाएँ दी हैं; जो इसप्रकार हैं -
“सम्पूर्ण रागादि परभावों की इच्छा के त्याग से स्वस्वरूप में प्रतपनविजयन तप है और बाह्य में इन्द्रियसंयम और प्राणीसंयम के बल से शुद्धात्मा में संयमनपूर्वक समीरसी भाव से परिणमन संयम है।"
इन गाथाओं में ऐसे विशेषणों का प्रयोग है, जिनमें कुछ विशेष अरहंतों में, कुछ विशेषण सिद्धों में और कुछ विशेषण दोनों में ही पाये जाते हैं।
स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग के उपदेशक यह अरहंत का विशेषण है और लोकशिखर पर स्थित यह सिद्धों का विशेषण है; इसप्रकार इन गाथाओं में सामान्यरूप से अरहंत और सिद्ध - दोनों परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है।
दूसरी गाथा का प्रथम पद भी ध्यान देनेयोग्य है । वह है देवदेवदेवं । देवदेव माने देवों के देव अर्थात् इन्द्र-देवेन्द्र और देवदेवदेव माने देवों के देव देवेन्द्र, उनके भी देव देवेन्द्र देव अर्थात् देवदेवदेव । इसप्रकार देवदेवदेव का अर्थ हुआ देवेन्द्रों के देव अरहंत-सिद्ध भगवान। ___इसीप्रकार एक पद है जदिवरवसह यतिवरवृषभ । यति माने साधु, यतिवर माने श्रेष्ठ साधु और यतिवरवृषभ माने श्रेष्ठ साधुओं में ज्येष्ठ-श्रेष्ठ इसप्रकार दूसरी गाथा की पहली पंक्ति का अर्थ हुआ जो तीनलोक के गुरु हैं, देवेन्द्रों के भी देव हैं और साधुओं में भी श्रेष्ठतम हैं, सभी से श्रेष्ठ हैं, सभी ज्येष्ठ हैं, बड़े हैं। ___ इसप्रकार इन गाथाओं में स्वर्गापवर्गमार्ग के उपदेशक देवाधिदिव अस्वाहानप्स क्यौहोतोकानमिवतकसिदायबामनहातबसकण क्कियो गोहै का कोई लाभ नहीं मिलता। यहाँ अपने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण अपनापन है।
भाई, यही हालत हमारे भगवान आत्मा की हो रही है। यद्यपि वह अपना ही है, अपना ही क्या, अपन स्वयं ही भगवान आत्मा हैं, पर भगवान आत्मा में अपनापन नहीं होने से उसकी अनन्त उपेक्षा हो रही है, उसके साथ पराये बेटे जैसा व्यवहार हो रहा है। वह अपने ही घर में नौकर बन कर रह गया है।
यही कारण है कि आत्मा की सुध-बुध लेने की अनन्त प्रेरणायें भी कारगर नहीं हो रही हैं, अपनापन आये बिना कारगर होंगी भी नहीं। इसलिए जैसे भी संभव हो, अपने आत्मा में अपनापन स्थापित करना ही एकमात्र कर्तव्य है, धर्म है।
- मैं स्वयं भगवान हूँ, पृष्ठ-३९