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प्रवचनसार अनुशीलन
गाथा-७७
इसप्रकार यह बात चौथे काल के मुनिराजों के शुभभाव की ही है। तात्पर्य यह है कि यहाँ चौथे काल के मुनिराजों के पुण्यभाव को भी पापभाव के समान हेय बताया गया है तथा इस बात को स्वीकार नहीं करनेवालों को अनन्तकाल तक भवभ्रमण करना होगा - यह कहा गया
कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा और उसकी टीकाओं के भाव को व्यक्त करने के लिए पाँच छन्द लिखते हैं; जो मूलत: पठनीय हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए कहते हैं -
“पुण्य-पाप के विकार एक ही जाति के हैं, क्योंकि वे ज्ञानस्वभाव से विरुद्ध हैं। ज्ञान उनमें अटकता है; इसलिए वे दु:ख के साधन हैं; फिर भी जो पुण्य-पाप में अंतर मानता है, वह मिथ्याभाव में जुड़ता हुआ घोर संसार में परिभ्रमण करता है। पुण्य-पाप के परिणाम में, बंधन में और उनके फल में जो अंतर मानता है; उसे नरक-निगोद में रखड़ना पड़ेगा
और वहाँ आत्मा का साधन भी नहीं मिलेगा; इसलिए पुण्य और पाप दोनों ही आत्मा के धर्म नहीं हैं; अपितु निश्चय से वे अधर्म हैं। ____ पूर्व गाथा में कहे अनुसार पुण्य इन्द्रियसुख का साधन है; किन्तु आत्मा के सुख का साधन नहीं। पुण्य का ध्येय इन्द्रियसुख और विषय हैं। उनकी तरफ लक्ष्य होने पर दु:ख होता है। निर्धनता और धनवानपना, निरोगता अथवा रुग्णता दोनों में अन्तर नहीं है। यह ज्ञेय इष्ट है और यह ज्ञेय अनिष्ट है - ऐसा ज्ञेयों में भेद नहीं है। ज्ञान जाने और ज्ञेय जानने में आए - इसके सिवाय दूसरा कोई संबंध नहीं है। ऐसा होने पर भी पुण्य अच्छा है - ऐसा माननेवाला मिथ्यादृष्टि है। शुभाशुभ उपयोग के द्वैत में दोपना नहीं है। विकार एक है। जैसे अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों की एक ही जाति है; वैसे ही पुण्य और पाप के बन्धन की एक जाति है। व्यवहार से पुण्य अच्छा है
- ऐसा कहा जाता है, परन्तु परमार्थ से दोनों एक ही हैं। ___ अनुकूलता हो अथवा प्रतिकूलता हो - दोनों की एक जाति है। इसीतरह शुभ परिणाम हो अथवा अशुभ परिणाम हो - दोनों की एक जाति है। शुभ-अशुभ के दो प्रकार नहीं हैं । लक्ष्मी (धन) हो अथवा नहीं हो, पुत्र हो अथवा न हो, निरोगता हो अथवा न हो - उनकी एक जाति है। पुण्य-पाप का बंधन एक जाति का है, क्योंकि दोनों में आत्मा का धर्म नहीं है।
पुण्य का गाढ़ (निर्भर) रूप से अवलम्बन लेनेवाला शुद्धोपयोग का तिरस्कार करता है; इसलिए वह संसार में रखड़ता है - ऐसा होने पर भी जो जीव स्वर्ण की और लौहे की बेड़ी की भाँति पुण्य और पाप में अन्तर होने का मत (अभिप्राय) रखता है; वह अज्ञानजन्य है; क्योंकि वह पुण्य को ठीक मानता है और पाप को बुरा मानता है; जिससे वह घोर संसार में रखड़ता है। ___'मैं ज्ञानानन्दस्वभावी हूँ - उसमें उपयोग लगाऊँ तो मेरा कल्याण होगा' - ऐसा वह नहीं मानता और पुण्य परिणाम को गाढ़पने अवलम्बता है। आत्मा में शुभपरिणाम होता है, जो उसे गाढ़पने अवलम्बता है, उसकी ज्ञान भूमि मैली है; वह शुद्धोपयोग का तिरस्कार करता है। इसलिए वह ऐसा वर्तता हुआ सदा के लिए शारीरिक दुख का ही अनुभव करता है।
ज्ञानी को शुभभाव आता है, दया-दान, व्रत-तप होते हैं; किन्तु उनका गाढ़ अवलम्बन नहीं होता। पूर्णानन्दस्वभाव का अवलम्बन होने से ज्ञानी को पुण्य का गाढ़ अवलम्बन नहीं होता।
अज्ञानी स्वयं पुण्य के परिणाम का गाढ़ अवलम्बन करता है; किन्तु ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव का अवलम्बन नहीं करता; इसलिए उसे अशरीरी १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१७४-१७५ २. वही, पृष्ठ-१७५
३. वही, पृष्ठ-१७५-१७६ ४. वही, पृष्ठ-१७६
५. वही, पृष्ठ-१७६