Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

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Page 167
________________ प्रवचनसार अनुशीलन गाथा-७६ ३२७ (कुण्डलिया) इन्द्रियजनित जितेकसुख, तामें पंच विशेष। पराधीन बाधासहित, छिन्नरूप तसु भेष ।। छिन्नरूप तसु भेष, विषम अरु बंध बढ़ावै । यही विशेषन पंच, पापहू में ठहरावै ।। तब अब को बुधिमान, चहै इन्द्रीसुख गिंदी। तातें भजत विवेकवान, सुख अमल अतिंदी ।।११।। जितना भी इन्द्रियसुख है; उसमें पाँच विशेषताएँ हैं। वह पराधीन है, बाधासहित है, छिन्नरूप है, विषम है और बंध का कारण है। इन्हीं पाँच विशेषताओं के कारण वह संसारी जीवों को पाप में स्थित रखता है। अब आप ही सोचो कि ऐसे गंदे इन्द्रियसुख को कौन बुद्धिमान चाहेगा? यही कारण है कि विवेकी ज्ञानीजन तो अमल अतीन्द्रियसुख की ही चाहना करते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “अब, पुन: अनेकों प्रकार से पुण्यजन्य इन्द्रियसुख का दुःखरूपपना प्रकाशित करते हैं। उसमें पर का संबंध है; क्योंकि वह चिदानन्द आत्मा का संबंध नहीं करता; इसलिए पैसा मिलाऊँ, मकान अनुकूल करूँ - ऐसी दृष्टि करता है तथा वह बाधासहित और विच्छिन्न है। जो पाँच वर्ष तक सुख जैसा दिखाई देता है, वही बाद में प्रतिकूल दिखाई देता है और यह दुखी होता है। पाँच-पच्चीस लाख की सम्पत्ति हो, किन्तु स्त्री अनुकूल न हो, बाहर में बहुत सम्मान हो, किन्तु घर में स्त्री और पुत्र बात नहीं मानते हों तो दुखी होता है। बीस वर्ष की लड़की होने पर भी लड़का नहीं मिला, तीस वर्ष १.दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१६४-१६५ का लड़का अभी कुंवारा है, इसप्रकार सदा तृष्णा में जलता है। पुण्यपापरहित आत्मा के भान बिना पूर्व में जो शुभभाव किया था, उसके फल में ऐसी तृष्णा होती है। ___ इन्द्रियसुख पर के संबंधवाला है, जो पराश्रयता के कारण पराधीन है। जैसे यदि नाक काम नहीं करे तो सूंघ नहीं सकता, आँख ठीक न हो तो दिखाई नहीं देता, जीभ ठीक न हो तो स्वाद नहीं ले सकता । इसप्रकार इन्द्रियसुख पर के संबंधवाला है; इसलिए पराधीन है। खाने को नहीं मिलता, पानी की इच्छा होने पर पानी नहीं मिलता, भोग की इच्छा के समय स्त्री नहीं मिलती; इसप्रकार इन्द्रियसुख में बाधा पड़ती है; इसलिए उसमें अत्यंत आकुलता होने से वह दुख ही है। साता का उदयकाल अल्प होता है और असाता के कारण, सामग्री चली जाती है। सेठपना, राजपना, अमलदारपना (कलेक्टर) चला जाता है; इसलिए इन्द्रियसुख उसके विपक्ष की उत्पत्तिवाला है। पूर्व के शुभभाव क्षणिक हैं; इसलिए उनके फलरूप संयोग भी क्षणिक ही होते हैं । निमित्त का अनुभव करता हुआ सुख भी क्षणिक है, इसलिए वह विपक्ष की उत्पत्तिवाला है। इन्द्रियसुख राग-द्वेष की उत्पत्ति करता है, इसलिए बन्धका कारण है।' इन्द्रियसुख हानि-वृद्धिवाला होने से अस्थिर है, इसलिए वह दुख ही है। पाँच लाख की सम्पत्ति हो, जो थोड़े ही समय में पाँच हजार की रह जाती है। बाहर में सम्मान हो और अन्दर में दिवालिया हो, इसप्रकार इन्द्रियसुख हानि-वृद्धिवाला है। अत: पुण्य भी पाप के समान ही दु:ख का साधन है - ऐसा १.दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१६५ २. वही, पृष्ठ-१६५ ३.वही, पृष्ठ-१६५ ४. वही, पृष्ठ-१६६ ५. वही, पृष्ठ-१६६ ६. वही, पृष्ठ-१६७ ७. वही, पृष्ठ-१६७ ८. वही, पृष्ठ-१६८

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