Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 149
________________ प्रवचनसार अनुशीलन ये सुखाधिकार के उपसंहार की गाथाएँ हैं। इन गाथाओं का भ तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - " जिसप्रकार उल्लू - बिल्ली आदि नक्तंचरों के नेत्र स्वयमेव ही तिमिरनाशक होते हैं; इसकारण उन्हें अन्धकार को नष्ट करनेवाले दीपकादि की कोई आवश्यकता नहीं होती; उसीप्रकार संसार में या मुक्ति में स्वयमेव सुखरूप परिणमित इस आत्मा को विषयों की क्या आवश्यकता है ? फिर भी अज्ञानी जीव 'विषय सुख के साधन हैं' - ऐसी मान्यता से व्यर्थ ही विषयों का अध्यास करते हैं, आश्रय करते हैं, सेवन करते हैं; तथापि संसार में या मुक्ति में स्वयमेव सुखरूप परिणमित इस आत्मा का विषय क्या कर सकते हैं ? २९० तात्पर्य यह है कि सुख की प्राप्ति में इन्द्रियविषय अकिंचित्कर हैं। जिसप्रकार आकाश में अन्य कारण की अपेक्षा रखे बिना ही सूर्य स्वयमेव अत्यधिक प्रभासमूह से चमकते हुए स्वरूप के द्वारा विलसित प्रकाशयुक्त होने से तेज है, उष्णतारूप परिणमित गोले के भांति सदा उष्णता परिणाम को प्राप्त होने से उष्ण है और देवगति नामक नामकर्म के उदय से स्वभाव से ही देव है; उसीप्रकार लोक में अन्यकारण की अपेक्षा रखे बिना ही भगवान आत्मा (सिद्ध भगवान) स्वयमेव ही स्व-पर को प्रकाशित करने में समर्थ अनंतशक्ति युक्त सहज संवेदन के साथ तादात्म्य होने से ज्ञान है, आत्मतृप्ति से उत्पन्न होनेवाली उत्कृष्ट अनाकुलता में स्थित होने के कारण सुख है और आत्मतत्त्व की उपलब्धि सम्पन्न बुधजनों के मनरूपी शिलास्तम्भ में जिनकी अतिशय दिव्यता और स्तुति उत्कीर्ण है, ऐसे दिव्य आत्मस्वरूपवान होने से देव है। इसलिए इस आत्मा को सुखसाधनाभासरूप विषयों से बस हो । तात्पर्य यह है कि इस आत्मा को विषयों में सुखबुद्धि तत्काल छोड़ देनी चाहिए।' यहाँ ध्यान देनेयोग्य बात यह है कि गाथा में तो स्पष्टरूप से यह लिखा गाथा - ६७-६८ २९१ है कि जिसप्रकार सूर्य स्वभाव से तेज, उष्ण और देव है; उसीप्रकार सिद्ध भगवान भी स्वभाव से ज्ञान, सुख व देव हैं; जबकि तत्त्वप्रदीपिका टीका में सिद्ध भगवान के स्थान पर भगवान आत्मा शब्द का उपयोग किया गया है। अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि यहाँ सिद्धपर्याय अपेक्षित है या त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा अपेक्षित है ? आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में सिद्ध भगवान ही अर्थ करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी परमातम शब्द का प्रयोग करते हैं; जो सिद्ध भगवान की ओर ही इंगित करता है । आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी भी इस प्रकरण पर व्याख्यान करते हुए सिद्ध भगवान का ही स्मरण करते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा भी ज्ञान, सुख व देव के लिए जिन विशेषणों का उपयोग किया गया है; उनमें सिद्ध भगवान ही प्रतिबिम्बित होते हैं । अतः यही लगता है कि आचार्य अमृतचन्द्र को भी यहाँ सिद्ध भगवान ही अभीष्ट हैं; तथापि उन्होंने अध्यात्म के जोर में भगवान आत्मा शब्द का प्रयोग किया है। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यदि प्राणी की दृष्टि स्वयं ही अंधकार का नाश करनेवाली हो तो उसे दीपक से कोई प्रयोजन नहीं होता। जैसे उल्लू आदि निशाचरों को दीपक की जरूरत नहीं होती; वैसे ही जब आत्मा स्वयं रागरूप परिणमित होता है, तब विषय का क्या करें ? यहाँ देह और विषय दोनों को ही निकाल दिया है; क्योंकि वे सुख के कारण नहीं हैं । अज्ञानी स्वयं उनमें सुख की कल्पना करता है । जैसे सुख - दुःख की कल्पना संयोग में नहीं है, वैसे ही वह स्वभाव में भी नहीं है; मात्र वर्तमान पर्याय में ही यह कल्पना करता है।" १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ ११९

Loading...

Page Navigation
1 ... 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227