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प्रवचनसार अनुशीलन उसको समझाते हुए कहते हैं कि वह दिव्य शरीर भी सुख का कारण नहीं है। अतीन्द्रिय सुख का कारण तो शरीर है ही नहीं, इन्द्रियसुख-दुख का कारण भी शरीर नहीं, आत्मा का अशुद्ध उपादान ही है।
इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि अतीन्द्रिय सुख का कारण आत्मा का शुद्धोपादान है और इन्द्रियसुख-दुख का कारण आत्मा का अशुद्धोपादान है।
कविवर वृन्दावनदासजी दोनों ही गाथाओं के भाव को एक-एक छन्द में प्रस्तुत करते हैं। ६६वीं गाथा के भाव को प्रस्तुत करनेवाला छन्द इसप्रकार है
(मनहरण) सर्वथा प्रकार देवलोक हू में देखिए तो,
देह ही चिदातमा को सुख नाहिं करै है। जद्दपि सुरग उतकिष्ट भोग उत्तम औ,
वैक्रियक काय सर्व पुण्य जोग भरै है ।। तहाँ विषयनि के विवश भयो जीव आप,
___आप ही सुखासुखादि भावनि आदरै है। ज्ञायक सुभाव चिदानंदकंद ही में वृन्द,
ता” चिदानंद दोऊ दशा आप धरै है ।। यद्यपि स्वर्गों में पुण्य के योग से सभी अनुकूल संयोग प्राप्त हैं; वैक्रियक शरीर है, उत्तम भोगों की उपलब्धि है; तथापि स्वर्गों में भी देह आत्मा को सुख देनेवाली नहीं है। वहाँ भी यह आत्मा स्वयं ही विषयों के वश होकर सुख-दुखरूप परिणमित होता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानानन्दस्वभावी चिदानन्द ही स्वयं अपनी उपादानगत योग्यता के कारण सुख-दुखरूप दोनों अवस्थाओं को धारण करता है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
गाथा-६५-६६
२८७ “कोई पूछता है कि सिद्धों को इन्द्रियाँ नहीं होती तो उन्हें क्या सुख होगा ? ऐसा कहनेवाले को यहाँ कहते हैं कि तुझे इन्द्रिय का सुख नहीं, किन्तु कल्पना का सुख है। ___ शरीर सुखी तो सर्व सुखी - ऐसा लोग कहते हैं; किन्तु यह बात सही नहीं है; क्योंकि शरीर सुख का साधन हो - ऐसा तो हमें दिखाई नहीं देता।
अशुद्ध स्वभावरूप परिणमित होता हुआ आत्मा ही स्वयमेव इन्द्रियसुखरूप होता है, उसमें शरीर कारण नहीं है; क्योंकि सुखरूप परिणति
और शरीर एकदम पृथक् होने के कारण सुख को और शरीर को निश्चय से कार्य-कारणता बिल्कुल नहीं है, अपितु शरीर को सुख का व्यवहार से कारण कहा, वह मात्र कहने के लिए है अर्थात् वास्तव में शरीर सुख का कारण नहीं है।
देखो ! यहाँ यह नहीं कहा कि 'शरीर कथंचित् सुख का साधन है और कथंचित् सुख का साधन नहीं है, किन्तु एकान्त अर्थात् नियम कहा है कि शरीर सुख का साधन नहीं है, नहीं है।'
यहाँ सिद्धान्त यह है कि बाह्य साधन सुख-दुःख का कारण नहीं है, अपितु आत्मा स्वयं यह पदार्थ मुझे इष्ट है' - इसप्रकार उनके वश होकर उनमें सुख की कल्पना करता है, जबकि अनिष्ट विषय, रोग अथवा निर्धनता दुःख का साधन नहीं है, अपितु यह मुझे ठीक नहीं है' - ऐसी कल्पना दु:ख का कारण है। शरीर स्वस्थ हो, प्रतिष्ठा (इज्जत) हो, पैसा हो, वैमानिक देवों की सामग्री हो तो वह भी सुख का कारण नहीं है।'
निर्धनता, दरिद्रता, रोग दु:ख का कारण नहीं है; अपितु ज्ञानस्वरूप आत्मा को भूलकर 'मुझे रोग अनिष्ट है' - ऐसी कल्पना ही दुःख का कारण है। यदि रोग दु:ख का कारण हो तो जितने प्रमाण में रोग, उतने प्रमाण में वह दुःख का कारण बनना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१०९
२. वही, पृष्ठ-१०९ ३. वही, पृष्ठ-११३ ४ . वही, पृष्ठ-११४ ५. वही, पृष्ठ-११५