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गाथा-७२
प्रवचनसार गाथा-७२ विषयों में रमनेवाले देव भी दुखी ही हैं - विगत गाथा में यह स्पष्ट हो जाने पर अब इस गाथा में यह कहते हैं कि जब पुण्योदयवाले देव भी दुखी ही हैं तो फिर पुण्य और पाप में क्या अन्तर रहा ? इसीप्रकार पुण्य और पाप के कारणरूप शुभ और अशुभभावों में भी क्या अन्तर रहा ? गाथा मूलत: इसप्रकार है
णरणारयतिरियसुरा भजन्ति जदि देहसंभवं दुक्खं । किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं ।।७२।।
(हरिगीत) नर नारकी तिर्यंच सुर यदि देहसंभव दुःख को।
अनुभव करेंतो फिर कहोउपयोग कैसे शुभ-अशुभ? ।।७२।। मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव - यदि ये सब ही देहजन्य दुख को अनुभव करते हैं तो फिर जीवों का वह उपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का कैसे है ?
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यदि शुभोपयोगजन्य उदयगत पुण्य की सम्पत्तिवाले देवादिक और अशुभोपयोग- जन्य उदयगत पाप की विपत्तिवाले नारकादिक - दोनों ही स्वाभाविक सुख के अभाव के कारण अविशेषरूप से पंचेन्द्रियात्मक शरीर संबंधी दु:ख का अनुभव करते हैं, तब फिर परमार्थ से शुभ और अशुभ उपयोग की पृथक्त्व व्यवस्था नहीं रहती।"
आचार्य जयसेन भी इस गाथा का भाव नयविभाग से इसीप्रकार स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि व्यवहारनय से शुभ और अशुभ में भेद होने पर भी दोनों के शुद्धोपयोग से विलक्षण अशुद्धोपयोगरूप होने से निश्चयनय से उनमें भिन्नत्व कैसे हो सकता है ?
तात्पर्य यह है कि निश्चयनय से दोनों समान ही हैं।
कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को चार छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जिनमें अन्तिम तीन दोहे इसप्रकार हैं
(दोहा) शुभपयोग देवादि फल, अशुभ दुखदफल नर्क । शुद्धातम सुख को नहीं, दोनों में संपर्क ।।५।। तब शुभ अशुभपयोग को, फल समान पहिचान । कारज को सम देखिकै, कारन हू सम मान ।।६।। तातै इन्द्रीजनित सुख, साधक शुभउपयोग।
अशुभोपयोग समान गुरु, वरनी शुद्ध नियोग ।।७।। शुभोपयोग का फल देवादि गति और अशुभोपयोग का दुखद फल नरकादि गति में जाना है; किन्तु आत्मानन्द का सम्पर्क दोनों में ही नहीं है।
इसलिए शुभ और अशुभोपयोग का फल समान ही जानना चाहिए। कार्य के समान कारण होता है - इस सिद्धान्त के अनुसार दोनों ही उपयोगों के अशुद्धोपयोगरूप होने से उनका फल चतुर्गति भ्रमण ही है।
शुभोपयोग और अशुभोपयोग - दोनों ही समानरूप से इन्द्रियजनित सुख के ही साधन हैं। यह बात गुरुदेव ने शुद्धनय से कही है।
उक्त गाथा का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"बड़े राजाओं को पूर्व पुण्य के कारण सामग्री मिलती है, वे सभी दुखी हैं; क्योंकि उनकी आकुलता का पार (अन्त) नहीं। धाम-धूम (धमाल) में तो आकुलता ही है । वे सब तो विषय के गड्डे में पड़े हैं। पाप के फलवाले भी आपत्ति में गड्डे में पड़े हैं, दोनों ही दुखी हैं।'
सम्पत्ति होने पर अज्ञानी सुख मानता है और गरीबी व आपदा होने पर दुःख मानता है; जबकि दोनों ही दु:खी हैं। अज्ञानी पैसे में सुख मानता
१. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१४५