Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 164
________________ गाथा-७५ ३२१ ३२० प्रवचनसार अनुशीलन "उदित तृष्णावाले देवों सहित समस्त संसारी जीव तृष्णा दुख का बीज होने से पुण्यजनित तृष्णाओं द्वारा भी अत्यन्त दुखी होते हुए मृगतृष्णा में से जल की भांति विषयों में से सुख चाहते हैं और उस दुख संताप के वेग को सहन न कर पाने से विषयों को तबतक भोगते हैं; जबतक कि विनाश (मरण) को प्राप्त नहीं होते।" ___ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का भाव सामान्यत: आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही स्पष्ट करते हैं । निष्कर्ष के रूप में अन्त में लिखते हैं कि इससे यह निश्चित हुआ कि तृष्णारूपी रोग को उत्पन्न करनेवाला होने से पुण्य वास्तव में दुख का ही कारण है। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को एक छन्द में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (मनहरण) देवनि को आदि लै जितेक जीवराशि ते ते, विषैसुख आयुपरजंत सब चाहैं हैं। बहुरि सो भोगनि को बार बार भोगत हैं, तिशना तरंग तिन्हैं उठत अथाहैं हैं।। आगामीक भोगनि की चाहदुख दाह बढ़ी। तासु की सदैव पीर भरी उर माहैं हैं। जथा जोंक रकत विकार को तब लों गहै, जौलों शठ प्राणांतदशा को आय गाहैं हैं ।।१०।। देवों को लेकर जितनी भी जीवराशि संसार में है; वे सभी जीव जीवनपर्यन्त विषयसुख को चाहते हैं। न केवल चाहते हैं; अपितु उन्हें बार-बार भोगते हैं; क्योंकि उनके हृदय में तृष्णा की अथाह तरंगें उठती रहती हैं। न केवल वर्तमान में ही भोगते हैं, अपितु आगामी काल के भोगों की चाह की दाह में जलते रहते हैं; उनके हृदय में इसकी भयंकर पीड़ा निरंतर विद्यमान रहती है। जिसप्रकार जोंक जबतक प्राणान्तदशा को प्राप्त नहीं हो जाती, तबतक विकारी रक्त को पीना नहीं छोड़ती; उसीप्रकार अज्ञानी जीव जबतक प्राणान्तदशा को प्राप्त नही हो जाते; तबतक भोगों को भोगते रहते हैं, पंचेन्द्रिय विषयों में रचे-पचे रहते हैं। पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “आत्मा का स्वभाव जानना-देखना और आनन्दमय है; उसे भूलकर जो दया-दानादि के परिणाम होते हैं, वे पुण्य हैं; उनके फल में तृष्णा बढ़ेगी और भोगों की भोगने की वृत्ति होगी । मैं ज्ञान हूँ, जो होनेवाला था, वह हुआ है; किन्तु पर का कोई भी काम मेरे से हो सके - ऐसा है ही नहीं। इसप्रकार संतोष करे तो तृष्णा मिटे। ___ असाध्य रोग व मरण का समय निकट आने पर भी तृष्णावंत सोचता है कि बहुत से जीव ऐसा रोग होने पर भी बच गए थे; इसलिए मैं भी ठीक हो जाऊँगा - इसप्रकार वह मरण के समय भी तृष्णा को बढ़ाता है। मरने की तैयारी हो फिर भी कषाय की मंदता नहीं करता, किन्तु तृष्णा किया करता है। शरीर की स्थिति पूरी होने को आए, फिर भी काम को नहीं छोड़ता। जिसप्रकार जोंक अति तृष्णावाली होने से रक्त पीना चाहती है, वह खराब रक्त की इच्छा करती है। अत्यधिक रक्त पीने से उसका शरीर फट जाता है, फिर भी रक्त पीने की इच्छा करती है, उसे ही भोगती हुई विनाश (मरण) पर्यन्त क्लेश को पाती है; वैसे ही पुण्यशाली भी पापशाली के समान क्लेश को पाते हैं। ___ पापवाले प्रतिकूल सामग्री को दूर करने की तृष्णावाले हैं और पुण्यवाले अनुकूल सामग्री को भोगना चाहते हैं । इसतरह अज्ञानी तृष्णा १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१५८ २. वही, पृष्ठ-१५९

Loading...

Page Navigation
1 ... 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227