Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

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Page 160
________________ प्रवचनसार गाथा-७३-७४ ७३वीं गाथा में शुभ और अशुभ उपयोग समान ही हैं - यह सिद्ध करने के उपरान्त अब इन ७३-७४वीं गाथाओं में यह समझाते हैं कि इन्द्र और नरेन्द्रों के वैभव को देखकर यह तो मानना ही पड़ता है कि शुभभावजन्य पुण्य की भी सत्ता है; तथापि वे पुण्य पुण्यवालों को विषय तृष्णा ही उत्पन्न करते हैं। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं - कुलिसाउहचक्कधरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं । देहादीणं विद्धिं करेंति सुहिदा इवाभिरदा ।।७३।। जदिसंतिहिपुण्णाणियपरिणामसमुब्भवाणि विविहाणि। जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं ।।७४।। (हरिगीत) वज्रधर अर चक्रधर सब पुण्यफल को भोगते। देहादि की वृद्धि करें पर सुखी हों ऐसे लगे।।७३।। शुभभाव से उत्पन्न विध-विध पुण्य यदि विद्यमान हैं। तो वे सभी सुरलोक में विषयेषणा पैदा करें ।।७४।। वज्रधारी इन्द्र और चक्रधारी नरेन्द्र शुभोपयोगमूलक पुण्यों के फलरूप भोगों के द्वारा देहादिक की पुष्टि करते हैं। इसप्रकार भोगों में वर्तते हुए सुखी जैसे भासित होते हैं; इसलिए पुण्य विद्यमान अवश्य है। यदि शुभोपयोगरूप परिणाम से उत्पन्न होनेवाले विविध पुण्य विद्यमान हैं तो वे देवों तक के जीवों को विषयतृष्णा उत्पन्न करते हैं। आप ही सोचें कि आपको पुण्योदय से सरस स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति हुई तो उसे देखकर, उसे खाने की ही इच्छा होगी न । इसीप्रकार पुण्योदय से अनुकूल सेवाभावी सुन्दरतम पत्नी प्राप्त हो गई तो उसे देखकर गाथा-७३-७४ ३१३ आपको विषयेषणा के अलावा और क्या होनेवाला है। ये इच्छा और विषयेषणा आकुलता ही तो है, दुख ही तो है। पुराने जमाने में जो बहुत-कुछ विषय-सामग्री परोक्ष रहती थी, सदा अपने सामने उपस्थित नहीं रहती थी; किन्तु आज तो हम उसे निरन्तर अपने सामने ही रखना चाहते हैं। पुराने जमाने में खाने की सामग्री रसोईघर में ही रहती थी; पर आज तो वह डायनिंग टेबल पर ही सजी रहती है, पारदर्शी बर्तनों में रखी रहती है। महिलायें भी पर्दे में रहती थीं, पर आज तो...। निरन्तर सामने रहनेवाली भोगसामग्री विषयेषणा तो पैदा करती ही है; साथ में उसे निरन्तर सामने रखने की भावना रखना और उसके लिए व्यवस्था जुटाना भी तो यही सिद्ध करता है कि हम उसे निरंतर भोगना चाहते हैं। इसप्रकार वह न केवल भोगने के भाव का निमित्तकारण है, अपितु भोगने की तीव्र आकांक्षा का परिणाम भी है, प्रतीक भी है; अन्तर की कामना को उजागर भी करती है। यही बात यहाँ कही गई है कि यदि इन्द्रादि दुखी नहीं होते तो वे अतिगृद्धतापूर्वक विषयों में निरन्तर क्यों रमते? इन गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “इन्द्र और चक्रवर्ती अपनी इच्छानुसार प्राप्त भोगों के द्वारा शरीरादि को पुष्ट करते हुए - जिसप्रकार जोंक दूषित रक्त में अत्यन्त आशक्त वर्तती हुई सुखी जैसी भासित होती है; उसीप्रकार - उन भोगों में अत्यन्त आशक्त वर्तते हुए सुखी जैसे भासित होते हैं; इसलिए शुभोपयोगजन्य पुण्य दिखाई देते हैं । तात्पर्य यह है कि इन्द्रादि को देखकर यह तो प्रतीत होता ही है कि पुण्य का अस्तित्व है। इसप्रकार शुभोपयोगपरिणामजन्य अनेकप्रकार के पुण्य विद्यमान हैं;

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