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प्रवचनसार अनुशीलन वहाँ से मनुष्य होकर आत्मा की साधना करके पूर्णदशा प्रगट करेगा, तब उसे पूर्ण आनन्द प्रगट होगा।
इन्द्रिय विषय का अधिष्ठान तीन गति हैं। उनमें देव सबसे ऊँचे हैं। जब वे भी दुःखी हैं, तब मनुष्य और तिर्यंचों को तो उतना पुण्य संयोग भी नहीं होता तो उनकी क्या बात करना ?२
जैसे अत्यधिक दुःख से पीड़ित हुआ मनुष्य अपघात करता है, संयोगों में प्रतिकूलता मानकर अपघात करता है; क्योंकि वहाँ दु:ख है; वैसे ही अज्ञानी विषयों की ओर झपट्टा मारता (दौड़ता) है, किन्तु आत्मा की ओर नहीं झुकता । आत्मा जो कि आनन्दकंद है, उसे छोड़कर इसे लाऊँ और उसे लाऊँ - इसप्रकार तृष्णा को बढ़ाता है। इन्द्रियसुख को लोग सुख मानते हैं, लेकिन वह सुख नहीं, अपितु दु:ख है।'
यह ज्ञानतत्त्व अधिकार है। जानना आत्मा का मूल स्वभाव है। उसका अवलम्बन ले तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र होता है। ज्ञान के सिवाय (अतिरिक्त) पुण्य-पाप का अवलम्बन ले तो धर्म नहीं होता। जानना आत्मा का स्वरूप है; उसकी एकाग्रता को छोड़कर दया-दान, व्रत-तप के भाव करता है, उससे इन्द्रियसुख मिलता है, किन्तु आत्मा का सुख नहीं मिलता । दया-दानादि भाव राग है, पुण्य है। उन शुभपरिणामों का ध्येय इन्द्रियसुख है और उनका अधिष्ठान मनुष्य तिर्यंच और देवगति में उत्पन्न होना है, किन्तु उससे आत्मा में शान्ति उत्पन्न नहीं होती।"
विगत गाथाओं में यह बताया गया था कि शुभभाव के फल में पुण्यबंध होता है और उससे तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में प्राप्त होनेवाला विषयसुख
गाथा-७१
३०७ प्राप्त होता है; अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि शुभभाव के फल में प्राप्त होनेवाला सुख वास्तव में सुख ही नहीं है, वह तो दुख ही है। __इस बात को सिद्ध करते हुए यह कह रहे हैं कि तिर्यंच, मनुष्य और देवों में सबसे अधिक सुखी देव माने जाते हैं; जब वे भी सुखी नहीं हैं, दुखी ही हैं तो फिर तिर्यंच और मनुष्यों की बात ही क्या करना ? वे तो हमें भी दुखी दिखाई देते हैं।
देवों को दुखी सिद्ध करने में सबसे बड़ी युक्ति यह है कि वे पंचेन्द्रियों की ओर दौड़ते देखे जाते हैं, उनमें रमते देखे जाते हैं। यदि वे दुखी नहीं हैं तो फिर विषयों में रमण क्यों करते हैं ? क्योंकि विषयों की रमणता तो दुख दूर करने के लिए ही होती है।
इसप्रकार यह सहज ही सिद्ध है कि नित्य विषयों में रमनेवाले तिर्यंच, मनुष्य और देव दुखी ही हैं।
श्रद्धा और ज्ञान तो क्षणभर में परिवर्तित हो जाते हैं, पर जीवन में संयम आने में समय लग सकता है। संयम धारण करने की जल्दी तो प्रत्येक ज्ञानी धर्मात्मा को रहती ही है, पर अधीरता नहीं होती; क्योंकि जब सम्यग्दर्शन-ज्ञान और संयम की रुचि (अंश) जग गई है तो इसी भव में, इस भव में नहीं तो अगले भव में, उसमें नहीं तो उससे अगले भव में संयम भी आयेगा ही; अनन्तकाल यों ही जानेवाला नहीं है।
अत: हम सभी का यह परम पावन कर्तव्य है कि हम सब स्वयं को सही रूप में जानें, सही रूप में पहिचानें, इस बात का गहराई से अनुभव करें कि स्वभाव से तो हम सभी सदा से ही भगवान ही है, इसमें शंका-आशंका के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है। रही बात पर्याय की पामरता की, सो जब हम अपने परमात्मस्वरूप का सम्यग्ज्ञान कर उसी में अपनापन स्थापित करेंगे, अपने ज्ञानोपयोग (प्रगटज्ञान) को भी सम्पूर्णत: उसी में लगा देंगे. स्थापित कर देंगे और उसी में लीन हो जावेंगे, जम जावेंगे, रम जावेंगे, समा जावेंगे, समाधिस्थ हो जावेंगे तो पर्याय में भी परमात्मा (अरहत-सिद्ध) बनते देर न लगेगी।
- मैं स्वयं भगवान हूँ, पृष्ठ-२३-२४
१. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१४० २. वही, पृष्ठ-१४१ ३. वही, पृष्ठ-१४१ ४. वही, पृष्ठ-१४२