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प्रवचनसार अनुशीलन
केवलज्ञान सर्वथा अपरिणामी नहीं; परन्तु वह एक ज्ञेय से अन्य की तरफ पलटता नहीं । सर्वज्ञ तीनोंकाल के ज्ञेयाकारों को जानते हैं तथा ऐसे के ऐसे परिणमन किया करते हैं ।
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यह केवलज्ञान आत्मा से अभिन्न है, इसलिए सुख के लक्षणभूत अनाकुलता को धारण करने से केवलज्ञान को ही सुख कहा है। ज्ञान और सुख दोनों ही जुदा-जुदा गुण हैं। ज्ञान सुखरूप नहीं होता; किन्तु केवलज्ञान प्रगट होने पर अविनाभावरूप से सुख प्रगट होता है; इसलिए केवलज्ञान
सुख कहा है। इसप्रकार केवलज्ञान और सुख को व्यतिरेक कहाँ है?? यहाँ कहते हैं कि केवलज्ञान एकान्तिक सुख है - यह सर्वथा अनुमोदन करनेयोग्य है; किन्तु चार ज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय-ज्ञान अनुमोदन करनेयोग्य नहीं है; क्योंकि ये चारों ज्ञान अपूर्ण पर्यायें हैं।
परिणाम केवलज्ञान का स्वरूप है; इसलिए केवलज्ञान को परिणाम द्वारा खेद नहीं होता तथा आत्मा की ज्ञानदशा अंतरस्वभाव के अवलम्बन से पूर्णरूप हुई है। उस केवलज्ञान का परिणमन स्वभाव है।
इसप्रकार केवलज्ञान और अनाकुलता का अविनाभाव संबंध है; इसलिए केवलज्ञान और सुख भिन्न नहीं है तथा केवलज्ञान समय-समय बदलता है; फिर भी उसमें उपाधि नहीं है । केवलज्ञान निष्कम्प, स्थिर, अनाकुल है; इसलिए केवलज्ञान सुखस्वरूप ही है।”
केवलज्ञानी सुखी कैसे हो सकते हैं; क्योंकि उन्हें तो अनंत पदार्थों को जानने का काम करना है ? केवलज्ञान भी परिणाम है; अतः वह एक समय बाद स्वयं नाश को प्राप्त होगा। अगले समय होनेवाले केवलज्ञान को फिर सभी पदार्थों को जानना होगा। इसप्रकार प्रतिसमय निरंतर सबको १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-७५-७६ ३. वही, पृष्ठ ७८
२. वही, पृष्ठ-७६
४. वही, पृष्ठ ७९
गाथा - ६०
जानने का काम करनेवाला केवलज्ञानी निराकुल कैसे हो सकता है ? इतना काम करनेवाले को थकान भी तो हो सकती है।
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केवलज्ञान का स्वरूप न समझनेवाले और मतिश्रुतज्ञान के समान ही केवलज्ञान माननेवालों के चित्त में उक्तप्रकार की आशंकायें सहज ही उत्पन्न हो सकती हैं।
उक्त आशंकाओं का निराकरण करते हुए इस गाथा और उसकी टीकाओं में यह कहा गया है कि -
मात्र परिणमन, थकावट या दुख का कारण नहीं है; किन्तु घातिकर्मों निमित्त से होनेवाला परोन्मुखपरिणमन ज्ञेयार्थपरिणमन थकावट या दुख का कारण है। घातिकर्मों का अभाव होने से केवलज्ञानी को थकावट या दुख नहीं है । अनंतशक्ति के धारक केवलज्ञानी को थकावट का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता ।
परिणमन केवलज्ञान का स्वभाव है, स्वरूप है; विकार नहीं, उपाधि नहीं। परिणमनस्वभाव का अभाव होने पर तो केवलज्ञान की सत्ता ही संभव नहीं है । इसप्रकार परिणाम (परिणमन) केवलज्ञान का सहजस्वरूप होने से उसे परिणाम के द्वारा खेद नहीं हो सकता ।
त्रैकालिक लोकालोक को, समस्त ज्ञेयसमूह को सदा अडोलरूप से जानता हुआ अत्यन्त निष्कंप केवलज्ञान पूर्णत: अनाकुल होने से अनंतसुख स्वरूप है।
इसप्रकार केवलज्ञान और अनाकुलता भिन्न-भिन्न न होने से केवलज्ञान और सुख अभिन्न ही हैं।
इसप्रकार घातिकर्मों के अभाव के कारण, परिणाम उपाधि न होने के कारण और अनन्तशक्ति सम्पन्न निष्कंप होने के कारण केवलज्ञान सुखस्वरूप ही है।