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प्रवचनसार अनुशीलन
गाथा-६०
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कराते हैं; इसकारण वे घातिकर्म प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणमित होहोकर थकनेवाले आत्मा के लिए खेद के कारण होते हैं। घातिकर्मों का अभाव होने से केवलज्ञान में खेद कहाँ से होगा?
दूसरे चित्रित दीवार की भाँति त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों के ज्ञेयाकार रूप अनन्तस्वरूप स्वयमेव परिणमित होने से केवलज्ञान स्वयं ही परिणाम है; इसकारण अन्य परिणाम कहाँ है कि जिससे खेद की उत्पत्ति हो ?
तीसरे वह केवलज्ञान समस्त स्वभाव प्रतिघात के अभाव के कारण निरंकुश अनंतशक्ति के उल्लिसित होने से समस्त त्रैकालिक लोकालोक के आकार में व्याप्त होकर कूटस्थतया अत्यंत निष्कंप है; इसकारण आत्मा से अभिन्न सुखलक्षणभूत अनाकुलता को धारण करता हुआ केवलज्ञान स्वयं ही सुख है; इसलिए केवलज्ञान और सुख का व्यतिरेक कहाँ है ?
इसलिए यह सर्वथा अनुमोदन करनेयोग्य है कि केवलज्ञान एकान्तिक
इसलिए निश्चय से वह अतीन्द्रियज्ञान सुखस्वरूप ही है, सुख ही है। इसमें रंचमात्र भी संशय नहीं है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"केवलज्ञान का काल एकसमय का है। दूसरे समय वह नाश को प्राप्त हो जाता है और नया उत्पन्न होता है।'
केवलज्ञान को बारम्बार बदलना पड़ता है; इसलिए खेद होता होगा - ऐसा कोई पूछता है तो उसका समाधान करने के लिए कहते हैं कि केवलज्ञान का स्वभाव स्व-परप्रकाशक है, भेद करके जानना है, इसलिए विकल्प है। विशेषरूप स्व-परप्रकाशक आकाररूप है; किन्तु राग के विकल्परहित है।
केवली भगवान को स्व-परप्रकाशक ज्ञान है। वहाँ भी ज्ञान का परिणमन होता है; किन्तु वह खेददायक नहीं है। निचलीदशा में क्रम से पलटना होता है; इसलिए वह खेददायक है। केवली भगवान को अतीन्द्रिय आनन्दवाला ज्ञान है, उसमें खेद नहीं होता।
जिसने धतूरा पिया हो उसे सफेद पदार्थ पीला लगता है; वैसे ही घातिकर्म के निमित्त से जीव अतत् में तत् बुद्धि करता है। वस्तु, जिस स्वरूप नहीं होती, वैसी मान्यता करता है और पुण्य-पाप के भाव जो दुःखरूप हैं, उसमें सुखबुद्धि करता है, जो मिथ्यात्व का कारण है।
जैसे दीवार चित्रित होती है, वैसे ही केवलज्ञान में सभी चित्रित हो गया है। इसप्रकार अनन्तस्वरूप स्वयमेव परिणमित होने से केवलज्ञान ही परिणाम है।
सुख है।"
इस गाथा के भाव को भी आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका टीका के अनुसरण पर ही स्पष्ट करते हैं।
कविवर वृन्दावनदासजी प्रवचनसार परमागम में इस गाथा के भाव को दो छन्दों में व्यक्त करते हैं; जिसमें पहला छन्द इसप्रकार है -
(मत्तगयन्द) केवल नाम जो ज्ञान कहावत है सुखरूप निराकुल सोई। ज्ञायकरूप वही परिनाम न खेद कहँ तिन्हि के मधि होई।।
खेद को कारण घातिय कर्म सो मूल” नाश भयो मल धोई। यातें अतिन्द्रिय ज्ञान सोई सुख है निहचै नहिं संशय कोई ।।२४।।
जो केवल नाम का ज्ञान है, वह निराकुल सुखरूप है। वह परिणाम ज्ञायकरूप है और उसमें रंचमात्र भी खेद नहीं है; क्योंकि खेद का कारण तो घातिया कर्म हैं, जो केवली भगवान के जड़मूल से नष्ट हो गये हैं;
१. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-६८ २. वही, पृष्ठ-६८ ४. वही, पृष्ठ-७१
३. वही, पृष्ठ-६८ ५.वही, पृष्ठ-७५