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प्रवचनसार अनुशीलन वह ज्ञान स्वयं को जानते हुए पर को जानता है। दोनों को युगपद् जानता है। कोई कहे कि उसने आत्मा को जाना और पर को नहीं जाना तो यह बात झूठी है । दर्पण में जो आम दिखाई देता है, वह दर्पण की स्वच्छता दिखाई देती है , वह प्रतिबिम्ब है। जैसे बिम्ब और प्रतिबिम्ब एक साथ हैं; वैसे ही स्व का ज्ञान और ज्ञेयों का ज्ञान एक साथ होता है। साधक ऐसे केवलज्ञान की प्रतीति करता है।'
जो अपनी पूर्ण पर्याय को नहीं जानता तो वह सर्व को नहीं जानता और जो सर्व को नहीं जानता वह अपनी पूर्ण पर्याय को नहीं जानता । एक समय में केवलज्ञान पूर्णत:स्व-पर को जानता है।'
भगवान, लोकालोक को जानते हैं - वह व्यवहार से है और व्यवहार अभूतार्थ है, इसीलिए केवलज्ञान का पर को जानना अभूतार्थ है - ऐसा अज्ञानी कहता है; किन्तु परसंबंधी ज्ञान, स्वयं का है। स्व-पर प्रकाशक ज्ञान, स्वयं का स्वभाव है। केवलज्ञान लोकालोक को तन्मय होकर नहीं जानता; इसलिए केवलज्ञान पर को व्यवहार से जानता है - ऐसा कहा जाता है। अपने में तन्मय होकर जानता है, इसलिए (स्व को) निश्चय से जानता है - ऐसा कहा है।
तथा कोई कहे कि ज्ञान सविकल्प है और विकल्प का अर्थ दोष है; इसलिए ज्ञान में दोष है, तो यह भी भूल है। यहाँ सविकल्प का अर्थ भेद से है। सिद्ध का केवलज्ञान भी सविकल्प है अर्थात् वहाँ सविकल्प का अर्थ दोष नहीं, अपितु वह भेद सहित जानता है - यह है । मैं आत्मा हूँऐसा भेद दर्शन नहीं करता । भेद करना यह ज्ञान का कार्य है। ज्ञान सर्वपदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय को भेद करके जानता है, इसलिए वह साकार है।
यदि आत्मा पूर्ण पर्याय को नहीं जाने तो वह अनन्तों को नहीं जानता। एक जानने में आये और दूसरा जानने में नहीं आये - ऐसा नहीं होता।" १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३८९ २. वही, पृष्ठ-३९१ ३.वही, पृष्ठ-३९२ ४ . वही, पृष्ठ-३९२-३९३ ५.वही, पृष्ठ-३९४
गाथा-४९
२३७ आत्मा को तो जाने, किन्तु लोकालोक जानने में न आवे - ऐसा नहीं होता तथा लोकालोक के छह द्रव्य जानने में आवें; किन्तु तू तुझे नहीं जाने - ऐसा भी नहीं होता। दोनों युगपद् हैं । जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब
और बिम्ब दोनों का ज्ञान होता है; वैसे ही भगवान आत्मा ज्ञान-दर्पण के समान है।
गाथा ४८ में बताया है कि जो सर्व को नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता। अब इस (४९वीं) गाथा में कहते हैं कि अपने चिदानन्द स्वभाव के अवलम्बन से ज्ञान परिपूर्णता को प्राप्त होता है - ऐसी परिपूर्णता को जो नहीं जानता, वह सर्व को नहीं जानता।
यह जैन शासन का महा रहस्यपूर्ण स्वरूप है। तेरा स्वभाव ज्ञान है। जो स्वभाव है, वह अपूर्ण (अधूरा) नहीं होता और वह पराधीन भी नहीं होता। ऐसे पूर्ण स्वभाव के सन्मुख होकर, ज्ञायक का निर्णय करना ही सम्यग्दर्शन है । क्रमबद्ध का निर्णय, साततत्त्व की श्रद्धा, स्व-पर भेदविज्ञान
और सर्वज्ञ का निर्णय इसमें आ जाता है।” ___ अनन्त गुण-पर्यायों सहित सम्पूर्ण पदार्थों को जानने की सहज प्रक्रिया यह है कि सम्पूर्ण पदार्थ अपने-अपने गुण-पर्यायों सहित केवलज्ञानी आत्मा के केवलज्ञान में एकसाथ झलकते हैं, प्रतिबिम्बित होते हैं, ज्ञात होते हैं, जाने जाते हैं। इससे यह सहज ही सिद्ध होता है कि जिस केवलज्ञानी व्यक्ति ने अपनी केवलज्ञानपर्याय को जाना, उसके ज्ञान में केवलज्ञान में प्रतिबिम्बित पदार्थ भी सहजभाव से जाने ही गये हैं। अत: यह कहना उचित ही है कि जो व्यक्ति सम्पूर्ण गुण-पर्यायों सहित स्वयं को जानता है; वह सभी पदार्थों को गुण-पर्यायों सहित जानता ही है और जो व्यक्ति स्वयं को सम्पूर्ण गुण-पर्यायों सहित नहीं जानता, वह अन्य सभी पदार्थों को भी नहीं जान सकता। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३९५ २. वही, पृष्ठ-३९९