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प्रवचनसार अनुशीलन आत्मज्ञान और आत्मभावना के अभाव में केवलज्ञान की उत्पत्ति संभव नहीं है ।
उक्त आशंका का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि परोक्षप्रमाणभूत श्रुतज्ञान के माध्यम से सभी पदार्थ जाने जाते हैं।
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यदि कोई कहे कि परोक्षप्रमाणभूत श्रुतज्ञान द्वारा सभी पदार्थ कैसे जाने जाते हैं तो उससे कहते हैं कि छद्मस्थों के भी व्याप्तिज्ञान द्वारा, अनुमान द्वारा लोकालोक का ज्ञान होता देखा जाता है।
केवलज्ञान संबंधी विषय को ग्रहण करनेवाला वह व्याप्तिज्ञान परोक्षरूप से कथंचित् आत्मा ही कहा गया है अथवा स्वसंवेदनज्ञान से आत्मा जाना जाता है और उसी से आत्मभावना की जाती है और उस रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञानरूप आत्मभावना से केवलज्ञान उत्पन्न होता है।
इसप्रकार उक्त कथनों में कोई दोष नहीं है।"
उक्त गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी दो छन्दों के माध्यम इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
से
( मत्तगयन्द )
जो यह एक चिदातम द्रव्य अनन्त धरै गुनपर्यय सारो । ताकहँ जो नहिं जानतु है परतच्छपने सरवंग सुधारो ।। सो तब क्यों करिके सब द्रव्य, अनंत अनंत दशाजुत न्यारो । एकहि काल में जानिसकै यह ज्ञान की रीति को क्यों न विचारो ।। २२१ । ।
अनंत गुण-पर्यायों को धारण करनेवाले इस एक चैतन्य आत्मा को जो प्रत्यक्ष सर्वांग नहीं जानता है; वह अनंतानंत पर्यायों से युक्त सभी द्रव्यों को भिन्न-भिन्न रूप से एक ही काल में कैसे जान सकता है ?
आप ज्ञान की इस रीति का विचार क्यों नहीं करते ?
गाथा- ४९
( मनहरण ) घातिकर्म घात के प्रगट्यो ज्ञान छायक सो,
दर्वदिष्टि देखते अभेद सरवंग है । ज्ञेयनि के जानिवे तैं सोई है अनंत रूप,
ऐसे एक औ अनेक ज्ञान की तरंग है ।। तातैं एक आतमा के जाने ही तैं वृन्दावन,
सर्व दर्व जाने जात ऐसोई प्रसंग है । केवली के ज्ञान की अपेच्छा तैं कथन यह,
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मंथन करी है कुन्दकुन्दजी अभंग है ।। २२२ ।। घातिकर्मों के अभाव से जो क्षायिकज्ञान प्रगट होता है, द्रव्यदृष्टि से देखें तो वह ज्ञान आत्मा से सर्वांग अभिन्न ही है। अनंत ज्ञेयों के जानने के कारण वह स्वयं भी अनंत ही है। इसप्रकार अनंत ज्ञेयों को जानने के कारण उनके और स्वयं एक ऐसे ज्ञानमयी आत्मा के जानने पर सभी द्रव्य जान लिए जाते हैं; जानने में आ जाते हैं।
यह कथन केवली भगवान के ज्ञान की अपेक्षा किया गया है। यह अभंग गंभीर मंथन आचार्य श्रीकुन्दकुन्ददेव ने प्रस्तुत किया है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"स्वयं को जानने पर, पर को जानता है एक ही साथ दोनों को जानता है। पर को जानना अपना स्वरूप है। जैसे, दर्पण में प्रतिबिम्ब पड़ता है - वहाँ बिम्ब और प्रतिबिम्ब दोनों को जानता है। वैसे ही, स्वयं को तथा पर को दोनों का जानना एक ही साथ है।
साधकदशा में भी स्व-पर को जानने का स्वभाव है। स्व को जाने और निमित्त और राग को नहीं जाने ऐसा नहीं बनता और राग को जाने और स्व को नहीं जाने - ऐसा भी नहीं बनता। यहाँ, स्व-पर को जानने की बात है। '
१. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ- ३८८