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प्रवचनसार अनुशीलन इसी प्रवचनसार की उक्त ४३ वीं गाथा में कहा है कि उदयगत पुद्गलकर्म के अंशों के अस्तित्व में चेतित होने पर, जानने पर, अनुभव करने पर मोह - राग-द्वेषरूप में परिणत होने से ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया के साथ युक्त होता हुआ आत्मा क्रियाफलभूत बंध का अनुभव करता है; किन्तु ज्ञान से बंध नहीं होता ।
इसप्रकार प्रथम ही अर्थपरिणमन क्रिया के फलरूप से बंध का समर्थन किया गया है।
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तथा -
'गेहदि जेवण मुञ्चदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं निरवसेसं ।। केवली भगवान पर-पदार्थों को ग्रहण नहीं करते, छोड़ते नहीं और न पररूप परिणमित ही होते हैं; वे तो निरवशेषरूप से सबको सर्व ओर से देखते - जानते हैं।
इसी प्रवचनसार की उक्त ३२वीं गाथा में शुद्धात्मा के अर्थपरिणमनादि क्रियाओं का अभाव बताया गया है; इसलिए जो आत्मा पर - पदार्थरूप से परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उनरूप उत्पन्न नहीं होता; उस आत्मा के ज्ञप्तिक्रिया का सद्भाव होने पर भी क्रियाफलभूत बंध सिद्ध नहीं होता। "
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका के समान ही निरूपण करते हुए अन्त में स्वसंवेदनज्ञान की प्रेरणा देते हुए लिखते हैं कि रागादि रहित ज्ञान बंध का कारण नहीं है ऐसा जानकर रागादि रहित निर्विकार स्व-संवेदनज्ञान की ही भावना करनी चाहिए।
वस्तुतः इस गाथा में सम्पूर्ण ज्ञानाधिकार में प्रतिपादित विषयवस्तु का ही उपसंहार है; नया प्रमेय कुछ भी नहीं है। सम्पूर्ण कथन का निष्कर्ष यह है कि केवली भगवान ज्ञान को ही ग्रहण करते हैं, ज्ञानरूप ही परिणमित
गाथा-५२
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होते हैं और ज्ञानरूप में ही उत्पन्न होते हैं। इसप्रकार केवली भगवान के प्राप्य, विकार्य और निवृर्त्य - तीनों कर्म ज्ञान ही हैं, ज्ञानरूप ही हैं। इसप्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान ही उनका कर्म है और ज्ञप्ति ही उनकी क्रिया है।
ज्ञप्तिक्रिया बंध का कारण नहीं है, अपितु ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया अर्थात् ज्ञेयपदार्थों के सम्मुख वृत्ति होना ही बंध का कारण है । केवली भगवान के ज्ञप्तिक्रिया होने पर भी ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया नहीं है; इसकारण उन्हें बंध नहीं होता।
कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को चार छन्दों में इसप्रकार समझाते हैं -
( मनहरण ) शुद्ध ज्ञानरूप सरवंग जिनभूप आप,
सहज-सुभाव - सुखसिंधु में मगन है । तिन्हें परवस्तु के न जानिवे की इच्छा होत,
जातैं तहाँ मोहादि विभाव की भगन है । तातैं पररूप न प्रनवै न गहन करै,
पराधीन ज्ञान की न कबहूँ जगन है ।। ताही तैं अबंध वह ज्ञानक्रिया सदाकाल,
आतमप्रकाश ही में जास की लगन है ।। २२६ ।। हे जिनराज ! आप शुद्धज्ञानरूप हैं, सहजस्वाभाविक सुखसागर में मग्न हैं; आपको परवस्तुओं को जानने की भी इच्छा नहीं है; क्योंकि आपके मोहादि विकारीभाव नष्ट हो गये हैं। इसकारण आप न तो पररूप परिणमित होते हैं और न पर को ग्रहण ही करते हैं तथा आपको पराधीन इन्द्रियज्ञान भी नहीं है। इसीकारण ज्ञानक्रिया के सदाकाल होते हुए भी आपको बंध नहीं होता; क्योंकि आपकी लगन सदा आत्मप्रकाशन में ही