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प्रवचनसार अनुशीलन उनके साथ नाता तोड़कर आत्मा के साथ नाता करना चाहिए। इन्द्रियज्ञान परोक्ष है; इसलिए हेय है।”
वस्तुत: बात यह है कि इन्द्रियज्ञान परोक्षज्ञान है; उसके जानने में बहुत-सी मर्यादायें हैं। एक तो वह अपने क्षयोपशम के अनुसार ही जान सकता है; दूसरे वह एकसमय एक इन्द्रिय के विषय में ही प्रवृत्त होता है।
यद्यपि हमें ऐसा लगता है कि हम सभी इन्द्रियों के विषयों को एकसाथ जान रहे हैं; तथापि ऐसा होता नहीं है। इस बात को समझाने के लिए यहाँ कौए की आँख की पुतली का उदाहरण दिया है। ___ कौए की आँखें तो दो होती हैं; किन्तु पुतली उन दोनों आँखों में मिलाकर एक ही होती है। वह एक पुतली दोनों आँखों में आती-जाती रहती है, उसका आना-जाना इतनी शीघ्रता से होता है कि हमें पता ही नहीं चलता कि पुतली एक है या दो।
इसीप्रकार इन्द्रियों के विषयों में हमारा उपयोग इतनी शीघ्रता से घूमता रहता है कि हमें ऐसा लगता है कि हम एकसाथ जान रहे हैं। वस्तुतः होता यह है कि हम एक-एक इन्द्रियों के विषयों में क्रमश: ही प्रवृत्त होते हैं। __ परोक्षभूत इन्द्रियज्ञान एकप्रकार से पराधीन ज्ञान है; क्योंकि इसे प्रकाश आदि बाह्यसामग्री के सहयोग की आवश्यकता होती है; इसकारण परोक्ष ज्ञानियों को व्यग्रता बनी रहती है, उनका उपयोग चंचल और अस्थिर बना रहता है; अल्पशक्तिवान होने से वे खेदखिन्न होते रहते हैं तथा परपदार्थको अपनी इच्छानुसार परिणमाने के अभिप्राय पद-पद पर ठगाये जाते हैं। इसलिए इन्द्रियज्ञान एकप्रकार से अज्ञान ही है; इसीकारण हेय भी है।
इन गाथाओं का भाव आचार्य जयसेन भी लगभग इसीप्रकार स्पष्ट करते हैं तथा इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करने के लिए कविवर वृन्दावनदासजी ने १४ छन्द लिखे हैं, जो मूलत: पठनीय हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-४५
प्रवचनसार गाथा-५७-५८ विगत गाथाओं में यह कहा था कि इन्द्रियसुख का साधन होने से और अपने विषयों में भी एकसाथ प्रवृत्त न होने से इन्द्रियज्ञान हेय है और अब इन गाथाओं में इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्षज्ञान नहीं है, परोक्षज्ञान है - यह बताते हुए परोक्षज्ञान और प्रत्यक्षज्ञान का स्वरूप स्पष्ट कर रहे हैं - गाथाएँ मूलत: इसप्रकार हैं -
परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा। उवलद्धं तेहि कधं पच्चक्खं अप्पणो होदि ।।५७।। जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खं ति भणिदमठेसु । जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं ।।५८।।
(हरिगीत) इन्द्रियाँ परद्रव्य उनको आत्मस्वभाव नहीं कहा। अर जो उन्हीं से ज्ञात वह प्रत्यक्ष कैसे हो सके ?||५७।। जो दूसरों से ज्ञात हो बस वह परोक्ष कहा गया।
केवल स्वयं से ज्ञात जो वह ज्ञान ही प्रत्यक्ष है।।५८।। वे इन्द्रियाँ परद्रव्य हैं। उन्हें आत्मस्वभावरूप नहीं कहा है। उनके द्वारा ज्ञात ज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ?
पर के द्वारा होनेवाला जो पदार्थों का ज्ञान है, वह परोक्ष कहा गया है। जो मात्र जीव के द्वारा ही जाना जाय, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं।
इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “वस्तुत: वह ज्ञान ही प्रत्यक्षज्ञान है, जो केवल आत्मा के प्रति नियत हो । यह इन्द्रियज्ञान तो आत्मस्वभाव का किंचित् भी स्पर्श नहीं करनेवाली आत्मा से भिन्न अस्तित्ववाली परद्रव्यरूप इन्द्रियों द्वारा होता है; इसलिए यह इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता।