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प्रवचनसार अनुशीलन
गाथा-५२
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लगी हुई है।
(दोहा) क्रिया दोइ विधि वरनई, प्रथम प्रज्ञप्ती जानि । ज्ञेयारथपरिवरतनी, दूजी क्रिया बखानि ।।२२७।। अमलज्ञानदरपन विर्षे, ज्ञेय सकल झलकंत। प्रज्ञप्ती है नाम तसु, तहां न बंध लसंत ।।२२८।। ज्ञेयारथपरिवरतनी, रागादिक जुत होत ।
जैसो भावविकार तहँ, तैसो बंध उदोत ।।२२८।। क्रियायें दो प्रकार की कही गई हैं। पहली क्रिया ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप क्रिया है और दूसरी क्रिया ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया है।
निर्मल ज्ञानदर्पण में सभी पदार्थ झलकते हैं। यह ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप क्रिया है; इसके कारण बंध नहीं होता।
ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया रागादि भावों से युक्त होती है; इसकारण जहाँ जैसा विकारीभाव होता है; वहाँ वैसा ही बंध होता है। ___इसप्रकार इस गाथा, उसकी टीकाओं और वृन्दावनदासजी के छन्दों में सबकुछ मिलाकर मात्र इतना ही कहा गया है कि वीतरागभावपूर्वक सहजभाव से होनेवाला पर-पदार्थों का ज्ञान बंध का कारण नहीं है; क्योंकि स्वपर को जानना तो आत्मा का सहजस्वभाव है; अत: किसी को भी जानना बंध का कारण कैसे हो सकता है ?
वस्तुत: बंध का कारण तो रागभाव है; इसकारण ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया के कर्ता रागी-द्वेषी-मोही जीव बंध को प्राप्त होते हैं; किन्तु जिन वीतरागी भगवन्तों के ज्ञान में वीतरागभाव से सहज जानना होता रहता है; उनका वह ज्ञान बंध का कारण नहीं है। यही कारण है कि केवली भगवान को बंध नहीं होता।
इस अधिकार के अन्त में तत्त्वप्रदीपिका टीका के कर्ता आचार्य
अमृतचन्द्रदेव एक महत्त्वपूर्ण काव्य लिखते हैं; जो इसप्रकार है -
(स्रग्धरा) जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं । मोहाभावाद्यदात्मना परिणमति परं नैव निक्षूनकर्मा । तेनास्ते मुक्त एव प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपांतज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः ।।४।।
(मनहरण कवित्त) जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब।
___ अनंत सुख वीर्य दर्शज्ञान धारी आतमा ।। भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब।
द्रव्य जाने एक ही समय में शुद्धात्मा ।। मोह का अभाव पररूप परिणमें नहीं।
सभी ज्ञेय पीके बैठा ज्ञानमूर्ति आतमा ।। पृथक्-पृथक् सब जानते हुए भी ये।
सदा मुक्त रहें अरिहंत परमातमा ||४|| जिसने कर्मों को छेद डाला है - ऐसा यह आत्मा विश्व के समस्त पदार्थों को उनकी भूत, भावी और वर्तमान पर्यायों के साथ एकसाथ जानता हुआ भी मोह के अभाव के कारण पररूप परिणमित नहीं होता; इसलिए अत्यन्त विकसित ज्ञप्ति के विस्तार से स्वयं पी डाला है ज्ञेयाकारों को जिसने - ऐसा यह ज्ञानमूर्ति आत्मा तीनों लोकों के सभी पदार्थों के ज्ञेयाकारों को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ कर्मबंधन से मुक्त ही रहता है।
उक्त छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि लोकालोक को जाननेवाला यह ज्ञानमूर्ति भगवान आत्मा मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण सबको सहजभाव से जानते हुए भी कर्मबंध को प्राप्त नहीं होता।