Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 119
________________ २३० प्रवचनसार अनुशीलन जानना सम्भव नहीं है; एक समय की पूर्ण पर्याय है, उसके सहित द्रव्य को जानना सम्भव नहीं है। एक समय में पूर्ण जाने, वह ज्ञाता है। यदि अनन्त पदार्थों को नहीं जानता हो तो वह एक समय की केवलज्ञान की पर्याय को भी नहीं जानता; इसलिए वह द्रव्य को भी नहीं जानता । गाथार्थ में 'पर्याय सहित एक द्रव्य कहा है।' इसका अर्थ यहाँ केवलज्ञान पर्याय सहित द्रव्य की बात है। आत्मा ज्ञाता अर्थात् एक समय की पर्याय की पूर्णतावाला आत्मा ज्ञाता है ऐसा अर्थ लेना है। - यहाँ केवलज्ञान की बात चलती है। एक समय में लोकालोक नहीं जाने तो एकसमय की केवलज्ञान पर्याय सहित द्रव्य को जानना सम्भव नहीं है। जैसे यदि, अग्नि सभी को एक साथ ही पूर्णत: जला नहीं सके तो यह अग्नि का वास्तविक स्वरूप नहीं है। राग तेरा स्वरूप नहीं है, अल्पज्ञता भी तेरा स्वरूप नहीं है । सर्वज्ञेयों को एक ही साथ आत्मा नहीं जाने तो वह आत्मा नहीं है - ऐसा यहाँ कहते हैं। तथा लोकालोक तो अनादि से है; किन्तु जब स्वयं केवलज्ञानरूप परिणमित हो तो लोकालोक निमित्त कहलाये। एक समय में पूर्ण ज्ञानरूप होना - ज्ञाता का स्वभाव है। आत्मा महासत्य है, उसका ज्ञान महासत्य है और उसकी पर्याय (जो) पूर्ण प्रगट होती है, वह भी महासत्य है। स्वयं लोकालोक को जाने - ऐसा है । अपूर्ण रहे, यह उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है। यदि एक समय में अनन्त पदार्थों को नहीं जाने तो अपनी एकसमय की केवलज्ञान की पर्याय को नहीं जानने पर वह द्रव्यों को ( भी ) नहीं जानता । छद्मस्थ को इस विधि से पूर्णता की प्रतीति होती है। तथा कोई कहे कि श्रुतज्ञान १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३८२ अपेक्षित धर्मों को जानता है; किन्तु २. वही, पृष्ठ- ३८४ ३. वही, पृष्ठ- ३८४ गाथा- ४८ २३१ केवलज्ञान अपेक्षित धर्मों को नहीं जानता तो यह बात असत्य है। जब केवलज्ञान श्रुतज्ञान को जानता है तो केवलज्ञान उसके विषयों को नहीं जाने - ऐसा नहीं बनता । श्रुतज्ञान अपेक्षित धर्मों को जानता है और उस श्रुतज्ञान को केवलज्ञान जानता है; इसलिए वह सर्व धर्मों को जानता है। एकसमय में पूर्णज्ञान प्रगट होता है वही ज्ञाता है। " इसप्रकार विविध उदाहरणों के माध्यम से इस गाथा और इसकी टीकाओं में यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञान का स्वभाव कुछ ज्ञेयों को जानना नहीं है; अपितु सभी पदार्थों, उनके गुणों और उनकी पर्यायों को एकसाथ एक समय में ही जानना है, जाननेरूप परिणमना है। ज्ञात अभी समस्त गुण पर्यायों सहित सम्पूर्ण पदार्थों के जाननेरूप नहीं परिणम रहा है; वह अभी सम्पूर्ण गुण-पर्यायों सहित अपने आत्मा को भी नहीं जान रहा है। तात्पर्य यह है कि जो सर्व गुण-पर्यायों सहित सबको नहीं जानता; वह सर्व गुण - पर्यायों सहित स्वयं को भी नहीं जान सकता। इसीप्रकार जो सर्व गुण-पर्यायों सहित स्वयं को नहीं जानता; वह सर्व गुण-पर्यायों सहित पर को भी नहीं जान सकता; क्योंकि स्व-पर को सर्व गुण- पर्यायों सहित जानना एकसाथ ही होता है, केवलज्ञान में ही होता है। अतः यह सुनिश्चित ही है कि केवलज्ञान में अपने आत्मा सहित सभी पदार्थ अपने-अपने अनंतगुण और उनकी अनन्त पर्यायों सहित प्रतिसमय एकसाथ जानने में आते हैं। वस्तुतः बात यह है कि यह भगवान आत्मा सर्वज्ञस्वभावी है. सबको देखने-जानने के स्वभाववाला है। कुछ को जानना और कुछ को नहीं जानना आत्मा का स्वभाव नहीं; अपितु विभाव है। यही कारण है कि नियमसार की गाथा ११-१२ में मतिज्ञानादि क्षयोपशम ज्ञानों को विभाव कहा है। • १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३८५

Loading...

Page Navigation
1 ... 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227