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गाथा-४८
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प्रवचनसार अनुशीलन स्वयं के लिए ज्ञाता और ज्ञेय - दोनों है; किन्तु अन्यजीव उसके लिए अजीवद्रव्यों के समान ज्ञेय ही हैं। यही कारण है कि यहाँ ऐसा लिखा गया है कि इन्हीं सबमें से एक कोई भी जीवद्रव्य ज्ञाता है।
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में तत्त्वप्रदीपिका का तो अनुसरण करते ही हैं; तथापि वे यह स्पष्ट कर देते हैं कि सभी पदार्थ ज्ञेय हैं और उनमें से विवक्षित एक जीवद्रव्य ज्ञाता है। इसीप्रकार द्रव्यों की संख्या गिनाते हुए कहते हैं कि लोकाकाशप्रमाण असंख्यात कालाणु हैं और उनसे अनन्तगुणे जीवद्रव्य हैं।
समस्त ईंधन को जलानेवाली अग्नि का उदाहरण तो वे तत्त्वप्रदीपिका के समान ही देते हैं; किन्तु साथ ही अन्य उदाहरण भी देते हैं; जो इसप्रकार हैं
"जिसप्रकार कोई अन्धा व्यक्ति सूर्य से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ सूर्य को नहीं देखने के समान; दीपक से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ दीपक को नहीं देखने के समान; दर्पण में स्थित बिम्ब को नहीं देखते हुए दर्पण को नहीं देखने के समान; अपनी दृष्टि से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ हाथ-पैर आदि अंगोंरूप से परिणत अपने शरीराकार स्वयं को अपनी दृष्टि से नहीं देखता; उसीप्रकार यह विवक्षित आत्मा भी केवलज्ञान से प्रकाशित पदार्थों को नहीं जानता हुआ सम्पूर्ण अखण्ड एक केवलज्ञानरूप आत्मा को भी नहीं जानता।
इससे यह निश्चित हुआ कि जो सबको नहीं जानता, वह अपने को भी नहीं जानता।"
उक्त उदाहरणों से यह बात पूरी तरह साफ हो गई है कि जिसप्रकार सूर्य व दीपक के प्रकाश में और दर्पण में प्रकाशित पदार्थों को नहीं जाननेवाला अंधा व्यक्ति सूर्य, दीपक और दर्पण को भी नहीं जानता; उसीप्रकार अतीन्द्रियज्ञान, केवलज्ञान में प्रतिबिम्बित पदार्थों को नहीं
जाननेवाला आत्मा अतीन्द्रिय केवलज्ञान और केवलज्ञानी आत्मा को भी नहीं जान सकता।
कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा का भाव एक ही छन्द में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
(मनहरण) तीनों लोकमांहि जे पदारथ विराजै तिहूँ,
काल के अनंतानंत जासु में विभेद है। तिनको प्रतच्छ एक समै ही में एक बार,
जो न जानि सकै स्वच्छ अंतर उछेद है।। सो न एक दर्वहू को सर्व परजाययुत,
जानिवे की शक्ति धरै ऐसे भने वेद है। तातें ज्ञान छायक की शक्ति व्यक्त वृन्दावन,
सोई लखै आप-पर सर्वभेद छेद है।। तीनलोक में जितने भी पदार्थ विद्यमान हैं; उनकी तीनकाल संबंधी अनंतानंत पर्यायें हैं; उन सभी को एक समय में ही एकबार ही जो प्रत्यक्ष नहीं जान सकता है; उसके अन्तर की स्वच्छता का उच्छेद हो गया है।
वह व्यक्ति सर्व पर्यायों से युक्त एक द्रव्य को भी जान सकने की शक्ति से रहित है - ऐसा शास्त्र कहते हैं । वृन्दावन कवि कहते हैं कि क्षायिकज्ञान की शक्ति तो ऐसी व्यक्त है कि उसमें अपने और पर के सभी भेद (पर्यायें) जान लिये जाते हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“यह आत्मा ज्ञानस्वरूप है। एक समय में सर्व ज्ञेयों को जाने - ऐसा इसका स्वभाव है।
यदि सर्व को नहीं जाने तो उसका पर्याय सहित एक द्रव्य को भी १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३८२