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प्रवचनसार अनुशीलन इसीप्रकार पुण्यवानों के प्रश्नों के अनुसार इच्छारहित जिनेन्द्रदेव की अनक्षरी दिव्यध्वनि खिरती है।
जिसप्रकार कोई व्यक्ति सोते हुए भी प्रलाप करने लगता है, उसमें उसके वचन बिना इच्छा के अपने आप ही निकलने लगते हैं।
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इसप्रकार जब इच्छावालों के वचन भी अनिच्छापूर्वक ही निकलने लगते हैं, तब तो वचनों के खिरने में इच्छा का कोई नियम नहीं रहा ।
चिन्तामणिरत्न और कल्पवृक्षों से अनंतानंत गुणी सुखद शक्ति अरहंत भगवान की देह में स्वाभाविकरूप से सहज ही रहती है।
उक्त कथनों के माध्यम से वृन्दावनदासजी यह कहना चाहते हैं कि अरिहंत भगवान के इच्छा के बिना होनेवाले विहारादि कायिक कार्य और दिव्यध्वनि सहज ही हैं, स्वाभाविक ही हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी उक्त गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यह ४५वीं गाथा अलौकिक है; इसमें महान सिद्धान्त है। पूर्व पुण्य प्रकृति के कारण से सभी फल मिले हैं। समवशरण की ऐसी रचना होती है, जिसे देखकर इन्द्र भी आश्चर्यचकित हो जाता है। जबकि इन्द्र स्वयं समवशरण की रचना करता है, फिर भी उसे विस्मयता होती है।
केवली भगवान को हलने-चलने व उपदेश आदि की क्रिया होती है। उस समय औदयिकी क्रिया होने पर भी वह बन्ध का कारण नहीं है; किन्तु सर्वज्ञ का पारिणामिक भाव तो शुद्ध होना बाकी है, वह शुद्ध होता जाता है; इसलिए उसे कार्यभूत मोक्ष का कारणभूत कहा है । केवली भगवान को जिससमय आस्रव होता है, उसीसमय खिर जाता है - ऐसा कहा है। ज्ञानी का झुकाव स्वभाव की तरफ है और अज्ञानी का झुकाव कर्म की तरफ । १. निचलीदशा में सम्यग्दृष्टि को चारित्र मोहनीय कर्म का उदय होने पर भी जितने अंशों में जीव उसमें नहीं जुड़ता, उतने अंश में उस कर्म के उदय को निर्जरा कहते हैं ।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ- ३५३
गाथा-४५
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२. केवली भगवान को साता वेदनीय कर्म के परमाणु का आस्रव जो समय-समय होता है, वह उसी समय चला जाता है - ऐसा शास्त्र में कथन है ।
३. केवली भगवान को पूर्व कर्म का उदय है; किन्तु समय-समय शुद्धता बढ़ती जाती है; इसकारण औदयिकी क्रिया को क्षायिकी कहा है।
केवली भगवान को समय-समय शुद्ध पर्याय होती जाती है; इसलिए औदयिकी का कार्य क्षायिक कहा जाता है। वह औदयिकी क्रिया चैतन्य के विकार का कारण नहीं होती; किन्तु मोक्ष का कारण होती है; इसलिए औदयिकी क्रिया को उसीसमय क्षायिकी मानना । औदयिकी क्रिया मोह रहित है, इसलिए वह बन्ध का कारण नहीं है; अतः उसी समय उसे क्षायिकी कहा है।
जैसे नदी में पानी का पूर आने पर भी जिसे तैरना आता हो तो वह तिर जाता है; वैसे ही कर्म का उदय होने पर भी स्वभाव-दृष्टिवंत तिर जाता है; किन्तु कर्म के उदय की तरफ झुकाववाला नहीं तिरता । 'मैं ज्ञानस्वभाव हूँ' - ऐसे भानवाले के कर्म के उदय को निर्जरा कहते हैं । केवली के आस्रव को उसीसमय अभाव कहा और औदयिकी क्रिया को क्षायिकी कहा है।
पूर्व कर्म का उदय भगवान को आता है; वह विहार, दिव्यध्वनि आदि में निमित्त है; वे कर्म छूटते जाते हैं और पारिणामिकभाव शुद्ध होता जाता है; इसलिए औदयिकभाव को क्षायिकभाव कहा है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि अरिहंत भगवान के पूर्वपुण्य के उदय में समवशरण आदि विभूति तो होती ही है, विहार भी होता है, दिव्यध्वनि भी खिरती है। इन सबकी न तो उन्हें कोई इच्छा है और न उनका इनमें एकत्व-ममत्व और कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही है। यह सब सहजभाव १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ- ३५७-३५८ ३. वही, पृष्ठ-३५९
२. वही, पृष्ठ-३५८
४. वही, पृष्ठ-३६१-३६२