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प्रवचनसार अनुशीलन से ही होता रहता है। इसकारण इन क्रियाओं के होने पर भी उन्हें किसी भी प्रकार का बंध नहीं होता। इसकारण ये कियायें उनके लिए निष्फल ही हैं; इसीलिए उत्थानिका में कहा गया है कि पुण्य का विपाक अरहंत भगवान के लिए निष्फल ही है, अकिंचित्कर ही है।
जगत में कहा जाता है और आगम में भी कहा गया है कि औदयिक क्रिया बंध का कारण है; किन्तु मोहादिभावरूप औदयिक भावों के अभाव में औदयिक क्रिया भी बंध करने में समर्थ नहीं होती; यही कारण है कि अरिहंत भगवान के विद्यमान उक्त औदयिक क्रियाओं को क्षायिकी क्रिया माना गया है; क्योंकि उनके मोह का पूर्णतः अभाव हो चुका है।
यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि दिव्यध्वनि जैसे महान कार्य को अकिंचित्कर कहना, निष्फल कहना तो अच्छा नहीं लगता; क्योंकि उससे तो भव्यजीवों का अनंत उपकार होता है, जिनशास्त्रों का मूल आधार तो वही दिव्यध्वनि है।
अरे भाई ! भव्य श्रोताओं और पाठकों को अर्थात् हमारे-आपके लिए तो वह दिव्यध्वनि पूर्णत: कार्यकारी है, सफल है, सार्थक है।
यहाँ बात हमारी-तुम्हारी नहीं, अरिहंत भगवान की है, उनके बंध की है। अरिहंत भगवान की दिव्यध्वनि उनके लिए कर्मबंध करने में अकिंचित्कर है, निष्फल है। उन्हें उसके कारण किसी भी प्रकार का कर्मबंध नहीं होता - यही अकिंचित्कर का अर्थ है।
प्रश्न - यहाँ तो साफ-साफ लिखा है कि पुण्यफला अरहंता अर्थात् पुण्य के फल में अरहंत होते हैं और आप कह रहे हैं कि................?
उत्तर - अरे भाई ! पुण्यफला अरहंता का अर्थ पुण्य के फल में अरिहंत होते हैं - यह नहीं है। इसका अर्थ तो यह है कि अरिहंत भगवान के पुण्यके उदय में जो क्रियायें होती हैं; वे पुण्य का फल हैं अर्थात् औदयिकी हैं; उनमें अरहंत भगवान का कुछ भी कर्तृत्व नहीं है। इसलिए यहाँ यह कहा
प्रवचनसार गाथा-४६ ४५ वीं गाथा में यह कहा है कि केवली भगवान की विहारादि क्रियायें औदयिकी होने पर भी क्षायिकी के समान ही हैं; क्योंकि रागादि भावों के अभाव में उन क्रियाओं के कारण उन्हें बंध नहीं होता।
अब इस ४६ वीं गाथा में यह कह रहे हैं कि उक्त कथन के आधार पर यदि कोई ऐसा मान ले कि केवली भगवान के समान अन्य सभी संसारी जीवों के भी स्वभाव के विघात का अभाव है तो उसका यह मानना ठीक नहीं है; क्योंकि संसारी जीव तो स्वयं शुभाशुभभावरूप परिणमित होते हैं और इसकारण उन्हें बंध भी होता है। गाथा मूलत: इसप्रकार हैजदिसो सुहोव असुहोण हवदि आदा सयं सहावेण । संसारो वि ण विजदि सव्वेसिं जीवकायाणं ।।४६।।
(हरिगीत) यदी स्वयं स्वभाव से शुभ-अशुभरूप न परिणमें।
तो सर्व जीवनिकाय के संसार भी ना सिद्ध हो ।।४६।। यदि ऐसा माना जाय कि आत्मा स्वयं स्वभाव से अर्थात् अपने भाव से शुभ या अशुभभावरूप परिणमित नहीं होता तो सभी जीवों के संसार का अभाव सिद्ध होगा।
उक्त गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
__ “यदि एकान्त से ऐसा माना जाय कि शुभाशुभभावरूप स्वभाव में (अपने भाव में) आत्मा स्वयं परिणमित नहीं होता तो यह सिद्ध होगा कि वह सदा ही सर्वथा निर्विघात शुद्धस्वभाव से अवस्थित है।
इसप्रकार समस्त जीवसमूह समस्त बंध कारणों से रहित सिद्ध होने