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प्रवचनसार अनुशीलन करते हैं। जिसप्रकार दीपक को खोजने के लिए दूसरे दीपक की जरूरत नहीं पड़ती; उसीप्रकार ज्ञान को जानने के लिए ज्ञानान्तर (दूसरे ज्ञान) की जरूरत नहीं है।
कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए छह छन्दों का उपयोग करते हैं; जिससे वे मूल गाथा तथा तत्त्वप्रदीपिका और तात्पर्यवृत्ति - दोनों टीकाओं के भाव को विस्तार से स्पष्ट करते हैं।
वैसे तो जो बातें उन्होंने लिखी है; वे सभी बातें गाथा और टीकाओं में आ गई हैं; तथापि नैकं स्वस्मात् प्रजायत के भाव को समझाने के लिए उन्होंने जो उदाहरण प्रस्तुत किया है; उसमें न केवल नवीनता है, अपितु हृदय को छू लेनेवाली ताजगी भी है।
वे लिखते हैं - ___ जदपि होय नट निपुन, तदपि निजकंध चढ़े किमि ।
नट कितना ही चतुर क्यों न हो; पर वह अपने कंधे पर तो चढ़ नहीं सकता। सम्पूर्ण छन्द मूलत: इसप्रकार है -
(षटपद) जदपि होय नट निपुन तदपि निजकंध चट्टै किमि । तिमि चिन्मूरति ज्ञेय लखहु नहिं लखत आप इमि ।। यों संशय जो करै तासु को उत्तर दीजे ।
सुपरप्रकाशकशक्ति जीव में सहज लखीजे ।। जिमि दीप प्रकाशत सुघटपट तथा आप दुति जगमगत । तिमि चिदानंद गुन वृन्द में स्वपरप्रकाशक पद पगत ।।१६२।।
यद्यपि नट निपुण हो, तथापि वह अपने कंधे पर कैसे चढ़ सकता है? उसीप्रकार चैतन्यमूर्ति आत्मा स्वयं को कैसे जान सकता है?
इसप्रकार की आशंका जो लोग प्रस्तुत करते हैं; उनको उत्तर देते हैं कि जीव में सहज ही स्व-परप्रकाशक शक्ति विद्यमान है।
गाथा-३६
जिसप्रकार दीपक स्वयं अपनी द्युति से जगमग होता हुआ घटपटादि पदार्थों को प्रकाशित करता है; उसीप्रकार स्व-पर को प्रकाशित करनेवाला चिदानंद आत्मा भी स्वयं प्रकाशमान है। ___इस विषय को स्पष्ट करने के लिए प्रवचनसार में जो टिप्पणी लिखी गई है, वह इसप्रकार है
"कोई पर्याय स्वयं अपने में से उत्पन्न नहीं हो सकती, किन्तु वह द्रव्य के आधार से द्रव्य में से उत्पन्न होती है। क्योंकि यदि ऐसा न हो तो द्रव्यरूप आधार के बिना पर्यायें उत्पन्न होने लगें और जल के बिना तरंगें होने लगें; किन्तु यह सब प्रत्यक्ष विरुद्ध है; इसलिए पर्याय के उत्पन्न होने के लिए द्रव्यरूप आधार आवश्यक है।
इसीप्रकार ज्ञानपर्याय भी स्वयं अपने में से उत्पन्न नहीं हो सकती; वह आत्मद्रव्य में से उत्पन्न हो सकती है; जो कि ठीक ही है। परन्तु ज्ञानपर्याय स्वयं अपने से ही ज्ञात नहीं हो सकती - यह बात यथार्थ नहीं है। आत्मद्रव्य में से उत्पन्न होनेवाली ज्ञानपर्याय स्वयं अपने से ही ज्ञात होती
जैसे दीपकरूपी आधार में से उत्पन्न होनेवाली प्रकाशपर्याय स्व-पर को प्रकाशित करती है; उसीप्रकार आत्मारूपी आधार में से उत्पन्न होने वाली ज्ञानपर्याय स्वपर को जानती है और यह अनुभव सिद्ध भी है कि ज्ञान स्वयं अपने को जानता है।"
स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“एक समय के परिणमन की क्रिया में से दूसरे समय की परिणमन क्रिया हो जाये - ऐसा नहीं होता। ज्ञानपर्याय ग्रहण-त्याग रहित और श्रुत-उपाधि रहित है, किन्तु पर्याय में से पर्याय नहीं होती। ज्ञायक परिणमता है - ऐसा कहा है, किन्तु पर्याय परिणमती है - ऐसा नहीं १. प्रवचनसार, पृष्ठ-९४ २. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२६८