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प्रवचनसार अनुशीलन द्रव्यों की सभी पर्यायें एकसाथ जानने पर भी, प्रत्येक पर्याय का विशिष्ट स्वरूप, प्रदेश, काल, आकार आदि विशेषताएँ स्पष्ट ज्ञात होती हैं। उनमें संकर-व्यतिकर (मिल जाना बदलना) नहीं होता । "
सर्वज्ञ के ज्ञान में एक समय में सभी अवस्थाएँ आ गई हैं। सभी अवस्थाएँ स्पष्ट ज्ञात होती हैं। भूतकाल की अवस्था, वर्तमान अवस्था और भविष्य की अवस्था सभी भिन्न-भिन्न ज्ञात होती हैं। प्रत्येक पर्याय का लक्षण भिन्न-भिन्न ज्ञात होता है। केवलज्ञान में सभी पर्यायों की मिलावट नहीं होती। जो अवस्था हो चुकी है, हो रही है और होगी, उसे वे भिन्न-भिन्न जानते हैं; केवलज्ञान एक समय में सभी कुछ जानता है; इसलिए उसे मिश्रित कहा है; किन्तु प्रत्येक का लक्षण भिन्न-भिन्न ज्ञात होता है।
जीव का विकार असंख्य प्रदेश में रहता है। उसका समय और उसका लक्षण ज्ञान में स्पष्ट ज्ञात होता है। एकदशा, दूसरीदशा में नहीं मिल जाती । त्रिकाल वेत्ता के ज्ञान में सभी अवस्थाएँ, जो हो चुकी हैं, हो रही हैं अथवा होंगी वे सभी जानने में आ गईं। इस जीव को राग हुआ है, इस जीव को भ्रान्ति हुई है, इस जीव को केवलज्ञान हुआ, इस परमाणु की ऐसी अवस्था है, इसके बाद दूसरी होगी, यह शरीर छूटेगा और इसके बाद अमुक अवस्था होगी ऐसा केवलज्ञान में ज्ञात होता है। इसतरह यहाँ ज्ञानस्वभाव का माहात्म्य कराते हैं।
जो वह ज्ञायक की पूर्ण अवस्था प्रगट हुई है, उसमें सभी अनन्त पर्यायें क्रमबद्ध ज्ञात हो जाती हैं। यह जीव इस भव में मोक्ष प्राप्त करेगा वह ज्ञान में ज्ञात होता है। भूतकाल की अनादि-सांत पर्यायें वर्तमान पर्याय और भविष्य की सादि-अनन्त पर्यायें केवलज्ञान में स्थिति प्राप्त करती हैं। कुछ भी जाने बिना बाकी नहीं रहता ।
आत्मा की ज्ञानत्वशक्ति अद्भुत है, इस बात का विश्वास आना १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ २८९-२९० २ वही, पृष्ठ- २९५ ३. वही, पृष्ठ- २९७
गाथा-३७
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चाहिए। जो पदार्थ है, उनको जानना वह ज्ञानस्वभाव है और जो पदार्थ है, उनका ज्ञात होने का स्वभाव है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई स्वभाव नहीं है। जैसे नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुओं के आलेख्याकार वर्तमान ही हैं; वैसे ही अतीत और अनागत पर्याय के ज्ञेयाकार ज्ञान में वर्तमान के समान ही ज्ञात होते हैं।
ज्ञेय क्रमबद्ध होते हैं और ज्ञान भी क्रमबद्ध जानता है। जिस पदार्थ की जो अवस्था होनेवाली है। वैसा ही ज्ञान जानता है। ऐसा जाने तो 'मैं उसकी रचना करता हूँ' - ऐसा अभिमान दूर हो जाता है और स्वभावसन्मुखदशा, प्रतीति होकर स्थिरता होती है।
सर्वज्ञ पूर्ण देखते हैं और अल्पज्ञ अपूर्ण देखते हैं; किन्तु बीच में ज्ञान दूसरा काम सौंपना वह भ्रान्ति है । "
उक्त गाथा और उनकी टीकाओं में जो प्रमेय उपस्थित किया गया है, उसमें निम्नांकित बिन्दु विशेष ध्यान देने योग्य हैं -
सर्वप्रथम तो यह बात कही गई है कि भूतकालीन पर्यायें भले ही विनष्ट हो गईं हों और भविष्यकालीन पर्यायें अभी उत्पन्न ही न हुईं हों; फिर भी केवलज्ञान में तो वे वर्तमान पर्यायों के समान ही विद्यमान हैं।
दूसरे ज्ञान का उन्हें जानना यह ज्ञान की स्वरूपसंपदा है और उन पर्यायों का ज्ञान में झलकना उक्त पर्यायों की स्वरूपसंपदा है। तात्पर्य यह है कि उनको जानना ज्ञान की मजबूरी नहीं है और उनका ज्ञान में झलक जाना भी उनके लिए कोई विपत्ति नहीं है। ज्ञान का जानना और ज्ञेयों का जानने में आना सहज स्वभाव है, उनकी स्वरूपसम्पदा है।
ऐसा प्रश्न उपस्थित होने पर कि जब वे अभी हैं ही नहीं, तब उनको जानना कैसे संभव है ? कहा गया है कि जब हमारे क्षयोपशमज्ञान में भूत और भविष्य की बातें जान ली जाती हैं तो फिर केवलज्ञान में जान लेने पर क्या आपत्ति हो सकती है ? आत्मा की ज्ञानशक्ति और पदार्थों की ज्ञेयत्वशक्ति काही यह काल है, यहाँ चित्रपट के उदाहरण से ज्ञानशक्ति और आलेख्या -कारों के उदाहरण से ज्ञेयत्वशक्ति के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। •