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प्रवचनसार अनुशीलन अवस्थाएँ प्रत्यक्ष वर्तमान दिखाई देती हैं; इसलिए ज्ञेयों की भूतकाल और भविष्य की अवस्थाएँ वर्तमानवत् हैं।'
जिस द्रव्य की जो अवस्था जैसी होनेवाली है, उसको केवलज्ञान जानता है - ऐसा ज्ञान का जानने का स्वभाव है और ज्ञेय का ज्ञात होने का स्वभाव है। जो होनेवाला है, वह होता है - ऐसे निर्णय में पुरुषार्थ है। जिसे जो विकार होनेवाला होता है, वही होता है और जिसे जो धर्म होनेवाला है, वही होगा - ऐसे ज्ञानस्वभाव की जिसे प्रतीति आई है,वह ज्ञाता-दृष्टा होनेवाला है और ऐसी पूर्ण ज्ञानसम्पदावाला जगत में है, जिसमें जगत की सभी पर्यायें ज्ञात हो जाती हैं; ऐसे केवलज्ञान की अस्ति अर्थात् सत्ता का भरोसा जिसे आया है, उसे विकार तथा अल्पज्ञता का भरोसा निकल गया है और अपने सर्वज्ञ स्वभाव का भरोसा आया है। जो पर्याय, जिस समय होनेवाली है, उसे केवलज्ञान ने देखा है और उस पर्याय में जो निमित्त है, उसे भी केवलज्ञान में देखा है - ऐसा निर्णय करनावह पुरुषार्थ है।
अनन्त महिमावंत केवलज्ञान की यह दिव्यता है कि वह अनन्त द्रव्यों की समस्त अवस्थाओं को भूतकाल तथा भविष्य की अवस्थाओं को सम्पूर्णतया एक ही समय में प्रत्यक्ष जानता है । यह बात खास चर्चा करने जैसी है।”
इन गाथाओं में न केवल केवलज्ञान की महिमा बताई गई है; अपितु केवलज्ञान का स्वरूप भी स्पष्ट किया गया है। यद्यपि इन गाथाओं में बताई गई बात हाथ पर रखे आंवले के समान स्पष्ट है; तथापि कुछ लोग शंकायें-आशंकायें व्यक्त करते हैं। उन्हें लगता है कि इसे मान लेने पर तो 'सबकुछ निश्चित हैं' - यह सिद्ध हो जावेगा। ऐसी स्थिति में हमारे हाथ में तो कुछ रहेगा नहीं।
उक्त संदर्भ में मैंने क्रमबद्धपर्याय नामक कृति में विस्तार से चर्चा की है। जिज्ञासु पाठक उसका स्वाध्याय गहराई से अवश्य करें। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३०७ २. वही, पृष्ठ-३१२ ३. वही, पृष्ठ-३१६
प्रवचनसार गाथा-४०-४१ विगत गाथाओं में यह समझाया गया है कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान से सभी द्रव्यों की तीनकाल संबंधी सभी पर्यायें एक साथ एक समय में जान ली जाती हैं। अब इन ४० व ४१वीं गाथा में इन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियज्ञान की तुलना करते हुए यह बता रहे हैं कि इन्द्रियज्ञान के लिए सभी पदार्थों की त्रिकालवर्ती सभी पर्यायों को जानना शक्य नहीं है; क्योंकि इन्द्रियज्ञान परोक्षज्ञान है; जबकि अतीन्द्रियज्ञान प्रत्यक्षज्ञान होने से मूर्त-अमूर्त, सप्रदेशी-अप्रदेशी सभी द्रव्यों की अजात और प्रलय को प्राप्त सभी पर्यायों को एक समय में एकसाथ जानता है। गाथाएँ मूलत: इसप्रकार हैं - अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं जे विजाणंति । तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं ।।४०।। अपदेसं सपदेस मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं । पलयं गदं च जाणदि तं णाणमदिदियं भणियं ।।४१॥
(हरिगीत) जो इन्द्रियगोचर अर्थ को ईहादिपूर्वक जानते । वे परोक्ष पदार्थ को जाने नहीं जिनवर कहें ।।४०।। सप्रदेशी अप्रदेशी मूर्त और अमूर्त को।
अनुत्पन्न विनष्ट को जाने अतीन्द्रिय ज्ञान ही ।।४।। जो इन्द्रियगोचर पदार्थों को ईहादिक पूर्वक जानते हैं; उनके लिए परोक्षभूत पदार्थ का जानना अशक्य है - ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है।
जो ज्ञान अप्रदेश को, सप्रदेश को, मूर्त को, अमूर्त को, अनुत्पन्न और नष्ट पर्यायों को जानता है; वह ज्ञान अतीन्द्रिय कहा गया है।