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प्रवचनसार अनुशीलन
आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा की उत्थानिका लिख हुए कहा गया है कि जिसके कर्मबंध के कारणभूत हितकारी अहितकारी विकल्परूप से जानने योग्य विषयों का परिणमन है, उसके क्षायिकज्ञान नहीं है।
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टीका में लिखा है कि 'यह नीला है, यह पीला है' इत्यादि विकल्परूप सेज्ञेयपदार्थों के प्रति परिणमन करता है तो उस आत्मा को क्षायिकज्ञान नहीं है अथवा ज्ञान ही नहीं है।
सहजानन्दजी वर्णी सप्तदशांगी टीका में लिखते हैं -
" ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया तीन रूपों में परखी जाती हैं - १. दर्शनमोह संबंधित
२. दर्शनमोहरहित चारित्रमोहसंबंधित
३. वीतराग क्षयोपशमिकज्ञान संबंधित
आत्मरूप से अंगीकृत ज्ञेयाकार के अनुरूप इष्टानिष्टादिविकल्पभावपरिणति दर्शनमोहसंबंधित ज्ञेयार्थ-परिणमनरूप क्रिया है ।
आत्मरूप से अंगीकृत न होने पर भी ज्ञेयाकार के अनुरूप हर्षविषादादि विकल्पभाव परिणति दर्शनमोहरहितचारित्रमोह-संबंधित ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया है।
वीतरागछद्मस्थ श्रमणों के क्षायोपशमिक ज्ञान में ज्ञानावरणदेशघातिस्पर्द्धकविपाकवश होनेवाली अस्थिरता वीतराग क्षायोपशमिक ज्ञानसंबंधित ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया है।"
आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"सर्वज्ञदेव की सिद्धि करने के लिए न्याय देते हैं कि ज्ञेय का अवलम्बन लेकर जो ज्ञान राग में अटके, वह विभाविक ज्ञान है; किन्तु वास्तविक ज्ञान नहीं, कुमतिज्ञान है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३३०
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आत्मा जाननहार है। जाननहार भगवान जानने योग्य पदार्थ के आश्रय से परिणमित होता हो अथवा राग में अटक करके काम करता हो तो उसे सकल कर्मवन के क्षय से प्रवर्तित होनेवाले ज्ञायक का ज्ञान नहीं है । ज्ञेय पदार्थरूप से परिणमित होता हो अर्थात् ज्ञातास्वभावरूप परिणमित नहीं होता; किन्तु ज्ञाता को चूक करके पर को जानने जाय - वह ज्ञान राग में अटकता है। वह ज्ञान ज्ञातारूप नहीं परिणमित होता; किन्तु ज्ञेयरूप परिणमित होता है - ऐसा कहा जाता है। "
ज्ञातास्वभाव को भूलकर, ज्ञेय का अवलम्बन लेकर राग का कार्य करता है, उसे ज्ञान नहीं कहते; क्योंकि वह ज्ञेयार्थपरिणमन है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह पर-पदार्थरूप परिणमित होता है; अपितु रागरूप परिणमता है - ऐसा यहाँ समझना और परज्ञेयों को जानने के लिए जाता हुआ ज्ञान, राग में अटकता है; इसलिए उसे ज्ञान नहीं कहते अर्थात् उसे क्षायिक ज्ञान नहीं कहते । ज्ञान राग में अटके तो वह क्षायिकज्ञान नहीं है। राग और ज्ञेय में अटककर राग का कार्य करे, वह सच्चा ज्ञान नहीं है अपितु राग और ज्ञेय का भेद करके ज्ञान का कार्य करे, वही सच्चा ज्ञान है ।
आत्मा ज्ञानस्वभावी है। वह दूसरे ज्ञेयों को जानकर, इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें प्रीति-अप्रीति करता है, वह बन्ध का कारण है। सर्वज्ञ को ऐसा नहीं होता। जो ज्ञेयों को इष्ट-अनिष्ट कल्पित करके राग-द्वेषरूप होता हो, उसे केवलज्ञान नहीं हो सकता। केवलज्ञान, कहीं भी अटके बिना भूत-भविष्य और वर्तमान को जानता है। जो ज्ञान एक के बाद एक जानता हुआ राग में अटके, वह क्षायिकज्ञान नहीं कहलाता ।
आत्मा ज्ञानस्वभावरूप नहीं परिणमता और एक-एक ज्ञेय में अटक कर काम करता है और पर-पदार्थों की इष्ट-अनिष्ट की कल्पना में अटकता १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ ३३०-३३१ २. वही, पृष्ठ-३३१३३२
गाथा-४२