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प्रवचनसार अनुशीलन
कहते हैं, उसका फल मोक्ष है।
मुनि कैसे होते हैं ? वे शास्त्र को तथा शास्त्र में कहे हुए द्रव्यों को जानते हैं। छहकाय की हिंसा के परिणाम से रहित हुए हैं और स्वरूपविश्रान्तपने चैतन्य का प्रतपन कर रहे हैं।
सम्यक्त्व रहित व्रत-तप, शीलादि व्यवहार नाम को प्राप्त नहीं होते। ऐसे बालव्रत से जीव को लाभ नहीं होता । सम्यग्दर्शन के बिना व्रत-तप सच्चे नहीं होते। यदि शुभरागरूप व्रत के परिणाम हो तो भी पुण्य होता है, किन्तु धर्म नहीं होता।
स्वरूपविश्रान्त निस्तरंगप्रतपनरूप तप होता है - ऐसे तप की यहाँ व्याख्या की है। रोटी न खाये वह जड़ की क्रिया है; राग की मंदता पुण्य है और स्वरूप में स्थिरता वह तप है। आत्मा पर को लानेवाला नहीं है; किन्तु देखनेवाला है। स्वभाव के भानसहित इच्छा की वृत्ति न उठे और आनन्द की कल्लोंले उठे, वह तप है - ऐसे तप सहित मुनि होते हैं।
सकल मोहनीय के विपाक से, भेद की भावना के उत्कृष्टपने द्वारा निर्विकार, आत्मस्वरूप को प्रगट किया होने से, मुनि वीतराग हैं। 'इष्टअनिष्ट संयोगों के समय मुनि को विषमता नहीं होती।' ___ तथा कैसे हैं मुनि ? आत्मा का स्वभाव जानना-देखना है, यही उनका सर्वस्व है; उनके अंतरबल के अवलोकन के कारण, सातावेदनीय तथा असातावेदनीय के विपाक से उत्पन्न होनेवाला जो सुख-दुःख है, उस सुख-दुःखजनित परिणाम की विषमता को वे अनुभव नहीं करते।
मुनि को बिच्छू-सर्प काटे, सिंह मारने आए, चक्रवर्ती वन्दना करे, आहार-पानी अच्छे से मिले अथवा नहीं मिले - ये सभी कर्मजनित संयोग हैं। अज्ञानी जीव मानता है कि ध्यान नहीं रखे तो बिच्छू काट १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-१००-१०१
गाथा-१४ जायेगा - तो यह बात असत्य है। आत्मा की इच्छा के कारण पर में फेरफार नहीं होता; किन्तु संयोग का मिलना वह पूर्व के कर्मानुसार है। आचार्यदेव कहते हैं कि कर्म के विपाक से सुख-दुःख के संयोग मिलते हैं। सुख-दुःख के परिणाम अर्थात् हर्ष-शोक उन्हें नहीं है। सुख-दुःख की कल्पना वह तो विषमता हुई, वह मुनि को नहीं होती। यहाँ सुखदुःख अर्थात् बाह्य संयोग की बात है।
वीरसेन स्वामी धवल में कहते हैं कि संयोगों के मिलने में वेदनीय कर्म निमित्त है, अन्य कर्म नहीं । वहाँ उन्होंने तर्क उठाया है कि वेदनीय कर्म तो जीवविपाकी है और यदि उसे संयोग के मिलने में निमित्त मानोगे तो वेदनीय कर्म पुद्गलविपाकी हो जावेगा?
समाधान - वेदनीयकर्म पुद्गलविपाकी भी है, वह हमें मान्य है; इसप्रकार धवल में वीरसेनस्वामी लिखते हैं। संयोग के काल में संयोग
और रोग के काल में रोग है, उसमें पूर्व में बंधा हुआ वर्तमान उदयरूप कर्म-निमित्त है। ___ लोग जिसे इष्ट मानते हैं, उसी को अनिष्ट मानते हैं। उन सर्वसंयोगों के प्रति मुनिराज को समताभाव है, किसी भी प्रसंग में उन्हें विषमता नहीं होती।
मुनि को विषमता क्यों नहीं होती ? क्योंकि मुनिराज परमसुखरस में लीन-निर्विकार स्वसंवेदनरूप परमकला के अनुभव के कारण वे इष्टअनिष्ट संयोगों में, हर्ष-शोकादि विषमता का अनुभव नहीं करते; इसलिए उन्हें इष्ट-अनिष्ट संयोग समान हैं - ऐसे श्रमण शुद्धोपयोगी कहे जाते हैं।
शुद्धोपयोग का फल मोक्ष है। शुद्धोपयोग कारण है और मोक्ष कार्य
तेरहवीं गाथा में शुद्धोपयोगियों के सुख का वर्णन था और यहाँ चौदहवीं १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-१०१-१०२