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प्रवचनसार अनुशीलन अब, शुद्ध उपयोग से होनेवाली केवलज्ञान की प्राप्ति अन्य कारकों से स्वतंत्र होने से अत्यन्त आत्माधीन है, लेशमात्र भी पराधीन नहीं है - ऐसा प्रसिद्ध करते हैं। यह आत्मा शुद्ध चिदानन्दस्वरूपी है; उसकी अंतर्मुख दृष्टि और स्थिरता द्वारा केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, उसमें व्यवहाररत्नत्रय का शुभराग आता है, किन्तु उसकी अपेक्षा नहीं होती।
शुद्ध चिदानन्द के आश्रय से ही जीव सम्यग्दर्शन, चारित्र और केवलज्ञानदशा प्राप्त करते हैं। केवलज्ञान अत्यन्त आत्माधीन है, लेशमात्र भी पराधीन नहीं है।
प्रवचनसार के साररूप यह गाथा बहुत उत्कृष्ट है। आत्मा अपनी मोक्षपर्याय प्रगट करता है; वह अपने कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान
और अधिकरण - ऐसे छह कारकोंरूप होकर करता है। स्वयं शुद्ध चिदानन्द निर्मल है। आत्मा स्वयं, पुण्य-पाप की रुचि छोड़कर शुद्ध चैतन्य स्वभाव की लीनता करके, स्वयं कर्ता होकर, धर्मपर्याय प्रगट करता है और स्वयं कर्ता होकर मोक्षरूपी फल प्रगट करता है।
वह स्वयं ही कर्ता, कर्म, साधन है, अपने में से स्वभाव लेता है और अपने को ही देता है, अपने में से अपने आधार से ही धर्म प्रगट करता है। जड़कर्म को दूर किया - यह तो निमित्त का कथन है। स्वभाव में लीन होते ही जड़कर्म स्वयमेव दूर हो जाते हैं।
शुद्ध चैतन्य भगवान आत्मा की दृष्टि करके अपने स्वभाव का कर्ता होकर,अपने स्वभाव का कार्य करके, अपने स्वभाव को साधन बनाकर, अपने में से स्वभाव प्रगट होता हुआ, अपने आधार से काम करता है - यह मोक्षमार्ग है - ऐसे छह कारकों रूप होकर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं।
गाथा-१६
यहाँ कहते हैं कि घातिकर्म को दूर करते हैं - ऐसा कहना तो असद्भूतव्यवहारनय का कथन है। राग-द्वेष, दया-दानादि के शुभभाव चैतन्य जागृति से विरुद्ध होने से वे भाव घातिकर्म हैं। शुद्धचैतन्यस्वभाव के आश्रय से ही धर्म होता है, किन्तु व्यवहार के कारण धर्म नहीं होता।'
सम्यग्दर्शन-सम्यक्चारित्र की शुद्धता के छह कारकों की प्राप्ति के लिए तथा केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए बाह्य साधनों को ढूँढने की व्यग्रता से (अज्ञानी) जीव व्यर्थ ही परतंत्र होते हैं और सोचते हैं कि ऐसे वीतरागी निमित्त मिले तो धर्म हो - ऐसा अज्ञानी कहता (मानता) है। तो उससे पूछते हैं कि क्या परद्रव्यों को मिलाया जा सकता है ? बिल्कुल नहीं ! भाई ! यह सभी आकुलता है। ऐसे निमित्त और ऐसा व्यवहार हो तो ठीक, यह मानकर मिथ्या अभिप्राय करके, जीव स्वयं परतंत्र होता है। वास्तव में स्वभाव के छह कारक स्वभाव से ही होते हैं - ऐसा समझकर जब जीव पराश्रय कीरुचि और निमित्त का लक्ष्य छोड़कर, स्वभाव का साधन करता है तो केवलज्ञान को प्राप्त करता है।
वास्तव में परद्रव्य के साथ आत्मा का संबंध नहीं है; इसीलिए पर सामग्री को मिलाने की आकुलता करना व्यर्थ है।
प्रत्येक ही आत्मा और परमाणु आदि सभी पदार्थ, स्वयं छह कारकरूप होकर अपना कार्य उत्पन्न करने के लिए समर्थ है, जिसे बाह्य सामग्री कुछ भी मदद नहीं कर सकती। बाह्य सामग्री अकिंचित्कर है। इसीलिए जिसको मुक्ति प्राप्त करना हो अथवा सिद्ध भगवान बनना हो, उन आत्माओं को बाह्य सामग्री की इच्छा रखकर परतंत्र होना निरर्थक है।
मैं शुद्ध चिदानन्द आत्मा हूँ' - ऐसा ध्यान करके लीन होकर, आत्मा स्वयं ही छह कारकरूप होकर केवलज्ञान प्राप्त करता है। स्वभाव में छह कारक बताये हैं। इसप्रकार स्वयं, स्वयं से स्वयंभू होता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-११९ २. वही, पृष्ठ-१२१-१२२
३. वही, पृष्ठ-१३२
१. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-१११ २. वही, पृष्ठ-११८ ३. वही, पृष्ठ-११९