________________
१४८
प्रवचनसार अनुशीलन जिसप्रकार आँखें रूपी पदार्थों को देखती-जानती हैं; उसीप्रकार शुद्धज्ञान की अमल छटा से भरा भगवान आत्मा अपने ज्ञान से मानों सर्व ज्ञेयों को उखाड़ कर निगल जाता है; उसकी शक्ति का ऐसा ही वैचित्र्य है।
इन गाथाओं का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"जिसतरह आँख रूपी पदार्थों में प्रवेश नहीं करती और रूपी पदार्थ आँख में प्रवेश नहीं करते, फिर भी आँख रूपी पदार्थों के ज्ञेयाकारों को ग्रहण करने के-जानने के स्वभाववाली है और रूपी पदार्थ अपने ज्ञेयाकारों को अर्पण करने के-जनाने के स्वभाववाले हैं; उसीतरह आत्मा पदार्थों में प्रवेश नहीं करता और पदार्थ भी आत्मा में प्रवेश नहीं करते, फिर भी आत्मा पदार्थों के समस्त ज्ञेयाकारों को ग्रहण करने के जानने के स्वभाववाला है और पदार्थ अपने समस्त ज्ञेयाकारों को अर्पण करने केजनाने के स्वभाववाले हैं; यदि आत्मा ऐसा नहीं जाने तो उसने आत्मा को नहीं जाना । जो आत्मा को नहीं जानता; उसे पुण्य-पाप आदि तत्त्वों का भी ज्ञान नहीं है। इसे समझे बिना बाहर में अनन्त भव गये। ज्ञेयों में क्रम से परिणमन होते हुए भी वे सभी एक समय में अक्रम जनाने की योग्यता रखते हैं और ज्ञान एक समय में अक्रम जानने की योग्यता रखता है।' ___आँख पर-पदार्थ में प्रवेश नहीं करती; इसलिए अप्रवेशी है और जैसे ज्ञेय हैं, वैसा जानती है; इसलिए उसे प्रवेशी कहा है। आँख सर्प को सर्परूप जानती है; जैसे पदार्थ हैं, वैसा जानती है; इसलिए आँख उसमें प्रविष्ट है - ऐसा कहते हैं। इसतरह उनका परस्पर संबंध बताते हैं। इसलिए व्यवहार से कहा कि वह प्रवेश किए बिना नहीं रहती। वास्तव में तो अंदर प्रवेश नहीं हुआ है; यही निश्चय है और अंदर प्रविष्ट हुई है, यह व्यवहार है।
गाथा-२८-२९
१४९ ज्ञान ज्ञेय के अन्दर पहुंचे, तब ही जाने - ऐसा ज्ञान का स्वभाव नहीं है। ज्ञान ज्ञेय के पास जाए, तब ज्ञान जाने - ऐसा स्वभाव नहीं है और ज्ञान ज्ञेय को प्राप्त होकर जाने - ऐसा भी स्वभाव नहीं है; वह इन्द्रियातीत होकर जानता है। लोकालोक के जितने भी पदार्थ हैं, उन सभी को स्पर्श नहीं करता; उन समस्त पदार्थों में प्रविष्ट हुए बिना ही यह ज्ञान जाने - ऐसा इसका स्वच्छ स्वभाव है - यह निश्चय है।
आत्मा स्व-परप्रकाशक शक्ति से विचित्र है। आत्मा के सिवाय अन्य में स्व-परप्रकाशक शक्ति नहीं होती। पर के ग्रहण और त्याग का स्वभाव आत्मा का नहीं है, अपितु मात्र पर को जानने का स्वभाव है।'
ज्ञान का तो मात्र स्व-पर को जानने का स्वभाव है - यही उसका कार्य है; इसलिए आत्मा का स्वभाव स्व-परप्रकाशक है। ज्ञान ने समस्त ज्ञेयाकारों को मानो कि उन्हें मूल में से ही उखाड़ कर ग्रसित कर लिया है। ऐसा लगता है कि जैसे ग्रास छोटा है और मुँह बड़ा है। मूल में से उखाड़ डाला है अर्थात् कि कोई भी ज्ञेय जानने में बाकी नहीं रहा, लोकालोक में कुछ भी बाकी नहीं रहा, सभी कुछ ज्ञान में आ गया है।
जिसप्रकार आँख अपने प्रदेशों द्वारा रूपी पदार्थों को स्पर्श नहीं करती होने से निश्चय से तो वह ज्ञेयों में अप्रविष्ट ही है। जिसतरह आँख अग्नि बर्फ आदि में प्रवेश नहीं करती, फिर भी उन रूपी पदार्थों को आँख जानती है; इसलिए यह कहा जाता है कि मेरी आँख बहुत पदार्थों में फिरती है।
उसीप्रकार ज्ञान और ज्ञेयों का निकट संबंध है अर्थात् ज्ञेय जनाय बिना नहीं रहते और ज्ञान जाने बिना नहीं रहता। उसीप्रकार केवलज्ञानी आत्मा का केवलज्ञान लोकालोक के पदार्थों को स्पर्श नहीं करता । निश्चय से तो वह ज्ञेयों में प्रवेश नहीं करता; फिर भी जानने-देखने का स्वभाव १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२२२ २.वही, पृष्ठ-२२२
१. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२१७ २. वही, पृष्ठ-२२१